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________________ ध्यान में उतरने के लिए सर्वप्रथम अपने राग और द्वेषमूलक संबंधों से उपरत हों। अन्तर्मन में प्रेम का सागर लहरा लेने दो। राग का दायरा बहुत सीमित है और प्रेम का विस्तृत । राग परिवार से हो सकता है, पर प्रेम तो समग्र मनुष्य जाति के लिए है। अगर मेरे मन में प्रेम की धारा बह रही है, तो वह एक-दो के लिए नहीं, सभी के लिए होगी। मैं सभी को प्रेम बाँटता रहूँगा। लेकिन अगर राग जुड़ा है तो वह सबके प्रति नहीं होगा। ध्यान के लिए भी पहली शर्त यह है कि गहराइयों में डुबकी लगाने के लिए राग और आसक्ति के दायरे से ऊपर उठना होगा। हमें तो आत्मा की तलाश करनी है, जो न गुफाओं में मिलेगी और न कहीं की यात्रा में, न ही घर या दुकान में उसे खोज पाओगे। वह तो वहीं है जहाँ तुम स्वयं हो। रामचन्द्र ने कहा, आत्मा नी शंका करे आत्मा पोते आप।' स्वयं आत्मा ही आत्मा की तलाश की रही है, वही स्वयं पर प्रश्न चिन्ह भी उठा रही है। जो पूछ रही है वही आत्मा है, जिसकी तलाश कर रहे हो वही आत्मा है। आत्मा तो पूरे अस्तित्व में है, लेकिन अपनी आत्मा को अपने भीतर ही जानना होगा। निज के अस्तित्व से बाहर निज का अस्तित्व नहीं है। हम सदियों से यह मूढ़ता पालते आए हैं कि अपनी आत्मा बाह्य-जगत् में तलाश रहे हैं। हमारी स्थिति सागर में रहने वाली उस मछली की तरह है, जो दूसरी मछली से पूछती है सागर कहाँ है? अब उसे कौन समझाए। सागर में जीवन-यापन करने वाली मछली अगर सागर तलाशे, तो इसे क्या कहेंगे? सूर्य से आने वाली रश्मियाँ एक-दूसरे से पूछे कि प्रकाश क्या होता है, तो क्या उत्तर दिया जाए। ठीक इसी तरह व्यक्ति एक-दूसरे से पूछ रहा है कि आत्मा और परमात्मा क्या होता है। आत्मा ही आत्मा से अनभिज्ञ बन बैठी है। भारतीय संस्कृति की यह विशेषता है कि उसमें मनुष्य ने स्वयं में परमतत्त्व की खोज की। शेष संस्कृतियों में परमात्मा का अस्तित्व बाहर की ओर खोजा है। भारत के महापुरुषों ने उस तत्त्व की तलाश स्वयं में की। महावीर ने महावीरत्व स्वयं से पाया। उनके गुरु वे स्वयं थे। वे जहाँ ठहरे, वही मंदिर और धर्मस्थानक हो गया। उन्होंने कोई मुख-वस्त्रिका, मोर पिच्छी या पीताम्बर धारण नहीं किया और न ही कोई गेरुआ या रंगीन वस्त्र पहने। महावीर ने जाना कि वह तत्त्व महल में नहीं है, न वह कपड़ों में है, न हीरेजवाहरात में है, न ही दान-दक्षिणा में है। वह तत्त्व स्वयं में है। ठीक है, भारत ने आइंस्टीन जैसे वैज्ञानिक, सिकंदर जैसे विश्व-विजेता पैदा नहीं किये पर बुद्ध और महावीर जैसी मनीषा विश्व को दी है। कबीर, नानक, मीरा 30 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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