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________________ एक बच्चे का मन माता-पिता, खिलौने, खेल और खाने तक ही जाएगा। लेकिन एक युवक का चित्त ! कितने-कितने धागे जुड़े हैं चंचलता के लिए। सुबह से साँझ तक मन भटकता ही रहता है । हमने संबंधों का इतना विस्तार किया है कि मन थमने का नाम ही नहीं लेता। जब संबंधों का, राग का फैलाव होगा, तो द्वेष भी साथ में चलेगा। यह राग-द्वेष ही आसक्ति है। आसक्ति के गहन होने पर मानसिक चंचलता और व्यग्रता का विकास होगा, तनाव बढ़ेगा। कल तक जब मैं आपसे अपरिचित था, आपका चित्त मेरी ओर नहीं आया था। मैं चित्त में प्रकट नहीं हुआ था। आज आपका मुझसे लगाव हो गया है। कल तक आप विवाहित न थे तो विचारों में कभी पत्नी प्रकट नहीं हुई थी। आज विवाह हो गया है। तुम विदेश जा रहे हो। वहाँ तुम्हें पत्नी की स्मृति आती है। तुम्हारे चित्त की चंचलता के सूत्र बढ़ रहे हैं । इसका क्या कारण है? हमारे संबंधों का, लगाव का विस्तार। __ ध्यान में उतरने के लिए रागात्मक संबंधों से उपरत हों। 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' सूत्र का अर्थ है एक दूसरे के प्रति सौहार्दता के भाव रखो, न कि राग और आसक्ति। दूसरे को ऊँचा उठाओ, प्रेम का विस्तार करो। राग का भाव हमारे लिए आसक्ति का केन्द्र बन सकता है, पर प्रेम कभी आसक्ति का केन्द्र नहीं बनता। राग और प्रेम के अन्तर को समझना आवश्यक है। राग तालाब जैसा है और प्रेम नदी का प्रवाह है। आगे बढ़ती हुई नदी विराट स्वरूप प्राप्त करती है और नदी का अंतिम लक्ष्य तो सागर है। प्रेम का अर्थ विस्तार है। नदी ने स्वयं को पूरे विश्व के लिए फैला दिया है, इसलिए वह कभी गंदी नहीं होती। जो गंदा होता है उसे हम डबरा कहते हैं । रुका हुआ पानी तालाब बन जाता है। जहाँ हमारे रागमूलक संबंध बनते हैं वहाँ डबरा बन जाता है। हम गड्ढा हो जाते हैं। सूखते हुए गड्ढे में गंदगी और अधिक बढ़ जाती है। आयु के विकास के साथ संबंधों का फैलाव होता जाता है। परिणामस्वरूप आसक्ति गहन होती जाती है। बेहतर होगा, अपने जीवन में प्रेम, वात्सल्य, स्नेह को स्थान दें। अभी तो हमारे चित्त में राग का स्थान है। हमारा चित्त तृष्णा, आसक्ति और मूर्छा में घिरा हुआ है। परिणामत: मृत्यु शय्या पर होने के बावजूद चित्त में सांसारिक चंचलता के सूत्र चलते रहते हैं। जो यह कहते हैं कि जीवन भर पाप करने के बाद मृत्यु के समय स्वयं को सुधार ले, तो बेडा पार लग जाएगा, वे चूक रहे हैं। भला, तब यह कैसे संभव हो पाएगा। मृत्यु तो जीवन की परीक्षा है। परीक्षा में तभी उत्तीर्ण हो सकते हैं जब जीवन में कुछ पाया हो, उपलब्ध किया हो। 1 29 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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