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ये संवाद संबोधि-धाम की पहाड़ी पर बने नयनाभिराम ‘संबोधिसभागार' में हुए हैं। पूज्यश्री का मंतव्य है जैसे पहाड़ पृथ्वी के धरातल से ऊपर होते हैं, ठीक उसी तरह संसार से ऊपर उठकर आत्मोन्नति में रत साधकसाधिकाओं को दिया गया मार्गदर्शन भी उन्हें ऊँचाइयों पर ले जाता है। वे कहते हैं आध्यात्मिक ज्ञान की चर्चा जन-समुदाय के मध्य नहीं, अपितु चुनिंदा लोगों के मध्य ही हो सकती है और ज्ञान-चर्चा जब अध्यात्म स्तर पर हो, तब वह किसी सरोवर के तट पर या पहाड़ी के शिखर पर अथवा किसी मधुर चाँदनी की रात में की जाए तो उसका आनन्द अनेरा और अदभुत होता है। भगवान बुद्ध ने भी ऐसी ही किन्हीं स्थितियों में समय-समय पर अपने शिष्यों से संवाद किए थे। पूज्यश्री ने भी हमारे साथ ऐसी ही रसभीनी मीठी-मधुर ज्ञान-चर्चा की है।
'विपश्यना' ध्यान की विशिष्ट विधि है, जिसका अनुशीलन कर साधकों ने स्वयं के सत्य से साक्षात्कार किया है, जीवन के दुःख-दौर्मनस्य का विनाश किया है और महापरिनिर्वाण को उपलब्ध हए हैं। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं; विपश्यना पर की गई चर्चा से वे स्वयं भी पुलकित, आनंदित और सत्य के रस से अभिभूत हैं। तभी तो वे इसमें डूब-डूबकर हमें भी डुबोते हैं और भीतर के विकारों तथा द्वन्द्वों से उतारते हैं। - गुरुदेव कहते हैं हमें स्वयं को तपस्वी और घर को तपोवन बना लेना चाहिए। उनकी सदा यह प्रेरणा रहती है कि आपको कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है। आप जहाँ हैं, जैसे हैं, वहीं शांति व मौन का आचरण कर लें, स्वयं की अनुपश्यना करने लगें, दिव्य प्रकाश की किरण धीरे-धीरे स्वतः भीतर उतरने लगेगी। अपने हृदय में हम प्रेम और शांति का बीज अंकुरित होने दें, हमें सारी सृष्टि शान्त और प्रेममय दिखाई देगी। वे कहते हैं तन को नहीं मन को तपाने की ज़रूरत है। यह प्रज्ञा बनी रहे कि भीतर की शांति और निर्मलता ही मेरे ध्यान का लक्ष्य है। गुरुदेव ने पुनः-पुनः बहुत ही बारीकी से विपश्यना/अनुपश्यना के सम्बन्ध में समझाया है। उसमें आई शब्दावली का इस तरह विवेचन किया है कि एक-एक बात गहराई से भीतर उतरती जाती है। विश्व में प्रचलित विभिन्न साधना-पद्धतियों का उल्लेख करते हुए वे बताते हैं कि अन्ततः तो स्वयं की विपश्यना करके ही, स्वयं की मनःस्थिति को जानकर ही, स्वयं की देह एवं मन की स्थितियों को समझकर ही, उनके प्रति सचेतन और जाग्रत होकर ही उनसे
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