SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाकाश्यप ने कहा- 'लेकिन प्रभु, आप ही तो कहते हैं देवों द्वारा प्रदत्त आहार नहीं लेना चाहिए और आज आप ही कह रहे हैं कि उसे अत्यन्त पुण्य अर्जन हुआ है, ऐसा क्यों ?' देवेन्द्र ने जो किया उसकी प्रतिक्रिया में बुद्ध ने कहा- महाकाश्यप यह सब इसलिए हुआ क्योंकि तुम्हारे शील की, पंचशील-पालन की सुगन्ध देवलोक तक पहुँच चुकी है, इसलिए देवेन्द्र स्वयं तुम्हें आहार प्रदान करने आए। देवेन्द्र के भावों की निर्मलता और तुम्हारे पंचशील की सुगन्ध ने उसे प्रभावित किया। अतः यह आहार स्वीकार्य है। हम सभी जो साधना के मार्ग पर चल पड़े हैं, हमारे लिए जरूरी है कि हम पंचशील या पंचव्रतों के पालन का पूर्ण होश और बोध बनाए रखें। अगर हमने ऐसा न किया तो हो सकता है कि विपश्यना का पवित्र मार्ग जो हमें हमारे सत्य से मुलाकात करवाएगा, हमारी अपनी प्रकृति से परिचित करवाएगा, जो हमें बताएगा कि हमारे भीतर विक्षिप्तताएँ हैं या एकाग्रताएँ हैं, यह मार्ग जो हमें चित्त के संस्कारों से मिलवाएगा, उस समय विचित्र तरंगों का अनुभव हो, दूषित संस्कारों का उदय हो, तब सम्भव है हम विचलित हो जाएँ और तब हम विपश्यना, अनुपश्यना या संबोधि साधना के मार्ग से स्वयं को अलग कर लें। इसलिए ज़रूरी है कि नींव के रूप में हमारे साथ शील-सम्बन्ध जुड़ जाना चाहिए। याद कीजिए उस राजकुमार को जिसके जीवन में प्रबल वैराग्य उदित हुआ। आप सोच सकते हैं कि जिस राजकुमार के मन में वैराग्य भाव आए, उसने कितना अधिक त्याग किया होगा। धर्म के प्रति उसके भीतर अत्यधिक श्रद्धा जगी होगी, तब कहीं कोई राजकुमार दीक्षा लेने की सोच सकता है। राजकमार ने संन्यास ले लिया. लेकिन हजारों संन्यासी थे। उसे जहाँ रहने को जगह मिल पाई, वहाँ पहले से ही सैकड़ों संन्यासी थे। नया संत था, तो बिल्कुल दरवाजे के पास सोने की जगह मिली। दूसरे संतों का आना-जाना जारी था। कोई लघुशंका के लिए जा रहा था, कोई रात्रि में साधना करने बाहर जा रहा था। इस तरह आते-जाते संतों की ठोकर से, पदचाप से वह परेशान हो गया, रातभर ठीक से सो न सका और सोचने लगा सुबह उठते ही वापस अपने राजमहल चला जाऊँगा। वह विचलित हो गया कि पहली रात में इतना कुछ झेलना पड़ रहा है तो जीवनभर न जाने कितना कुछ झेलना पड़ेगा। सुबह उठकर जैसे ही वह जाने को उद्यत हआ, तभी उसके गुरु भगवान महावीर ने उससे 26 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy