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अवश्य होना चाहिए । शील जीवन की आवश्यकता है, व्रत है, धर्म है, मर्यादा है। शील वह मार्ग है, जहाँ सारी पगडंडियाँ आकर मिल जाती हैं। इसलिए शील सभी व्रतों का व्रत है, सभी आश्रमों का आश्रम है, समस्त मंत्रों का मंत्र है। सभी धर्मों का धर्म है। शील अर्थात् सदाचार । शील अर्थात् जीवन को पवित्रता
और मर्यादा के साथ जीने का संकल्प । शील जीवन की सुगन्ध है, शील जीवन की ज्योति है।
दिन में सूरज और रात में चाँद चमकता है, लेकिन शील वह चमक है, जो दिन में भी विद्यमान रहती है और रात के घुप्प अंधकार में भी शील और व्रत की ज्योति बरकरार रहती है। हमने न जाने कितनी प्रकार की सुगन्धों का अनुभव किया है। अलग-अलग दिशा से आने वाली हवा विभिन्न प्रकार की सुगन्ध लेकर आती है, लेकिन शील वह सुगन्ध है, जो हर दिशा से आने वाली हवा के साथ हमें महकाती है।
कहते हैं : भगवान श्री बुद्ध के परम शिष्य, बुद्धत्व के प्रकाश को उपलब्ध, अरिहंत के तुल्य महाकाश्यप मुनि को आहार देने के लिए स्वयं इन्द्राणी पहुँची। जब उन्होंने आहार देना चाहा तो महाकाश्यप उन्हें पहचान गए
और भोजन लेने से यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि वे देव-प्रदत्त आहार स्वीकार नहीं करते। इन्द्राणी ने देवेन्द्र से सब बात कही तो देवेन्द्र के मन में
आया कि अगर वह नहीं दे पाई तो क्या हुआ, वे स्वयं जाकर आहार देंगे। यह सोचकर देवेन्द्र नीचे आते हैं और एक गृहस्थ के घर में प्रवेश करते हैं। अपना रूप भी गृहस्थ का बना लेते हैं। जब वह गृहस्थ महाकाश्यप को आहार देने लगते हैं, तब देवेन्द्र भी अपने साथ लाया हुआ अत्यन्त सुगंधित और उत्तम कोटि का आहार महाकाश्यप के पात्र में समर्पित कर देते हैं । महाकाश्यप ने देखा कि वे तो साधारण से गृहस्थ के घर आए थे। यह उत्तम कोटि का आहार किसने डाला। दिव्य दृष्टि से उन्होंने पहचाना कि उन्हें उत्तम आहार देने वाला स्वयं देवेन्द्र है। महाकाश्यप ने कहा- वत्स, यह तुमने अच्छा नहीं किया। अब पात्र में भोजन आ गया है, तो इसे स्वीकार करना ही होगा।
मुनि उस आहार को लेकर भगवान बुद्ध के पास पहुंचे और कहाभगवन्, आज मुझे इन्द्र ने आहार प्रदान किया है। मेरे द्वारा इन्द्राणी को मना किए जाने के बाद स्वयं देवेन्द्र आए। आज यह उचित नहीं हुआ। भगवान ने कहा- महाकाश्यप देवेन्द्र ने आहार देकर अत्यधिक पुण्य का अर्जन किया है।
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