SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खोटे सिक्के को लौटाओगे नहीं, क्योंकि जीवन-भर लोगों ने मुझे हज़ारों खोटे सिक्के दिए हैं, पर मैंने किसी भी खोटे सिक्के को लेने से इन्कार नहीं किया है। मैं भी एक खोटा सिक्का हूँ और आपके श्री चरणों में समर्पित हो रहा हूँ। कृपा करके आप भी मुझे अस्वीकार न करें। मुझे यह कहानी प्रिय है। मैं मानता हूँ कि हम सभी खोटे सिक्कों की तरह हैं। प्रभु तो करुणावतार हैं, कृपासिंधु हैं । वे अपने विरुद को अवश्य निभाएँगे। मुझे स्वयं के खोटेपन का अहसास है। खरा सिक्का बनने की कोशिश करते हैं, फिर भी अनेक दफ़ा खोटा सिक्का साबित हो जाते हैं। मुझे मालूम है मेरे पास भी अनेक लोग खोटे सिक्कों की तरह आते हैं, मैं उन्हें इन्कार नहीं करता । खरे सिक्के बाजार में चलते हैं और खोटे सिक्के मन्दिर के गुल्लक में । खोटे सिक्कों पर ट्रस्टी भी नज़र नहीं डालते, वे मन्दिर के गुल्लक की शोभा बढ़ाते रहते हैं। विपश्यना यानी स्वयं को पहचानने का एक तरीका कि हम खोटे सिक्के हैं। हालांकि हमें न चाहते हुए भी यह विश्वास हो जाता है कि मैं खरा सिक्का, मैं सत्यवादी। हम सभी स्वयं को महान मानते रहते हैं। दूसरों से तो अपेक्षा रखते हैं कि वे झूठ न बोलें, किन्तु स्वयं कितना झूठ बोलते हैं, पता ही नहीं चलता। स्वयं की स्थिति तो तलहटी पर भी नज़र नहीं आएगी, शिखर और पहाड़ की बात तो बहुत दूर है। जो जागे सो पावे । जो प्रज्ञाशील है, जो स्वयं के प्रति, अपने अध्यात्म के प्रति हक़ीक़त में सचेतन होता है, वही अपने कर्म के बीजों को धो सकता है। बातों से नहीं, करने से कर्म कटते हैं। हम अतीत में बोए गए कर्म-बीजों को काटने के प्रति जागरूक नहीं होते। कभी किसी तिथि का उपवास कर लेते हैं, कभी प्रतिक्रमण के सूत्रों को दोहरा लेते हैं, कभी किसी मन्दिर में मत्था टेक आते हैं। इससे अधिक और क्या कर लेते हैं हम लोग । अधिक से अधिक थोड़ा बहुत दान कर लेते होंगे। हमारे भीतर राग-द्वेष की जो अन्तरधाराएँ हैं, जो उसके संस्कार हमारे भीतर व्याप्त रहते हैं, उन्हें काटने के लिए कितना प्रयत्न करते हैं ? हम जो कथित धार्मिक कहलाते हैं, हमको एक पल लगता है गुस्सा आने में, एक पल लगता है तमतमाने में। बाहर से ठंडे-ठंडे दिखाई देते हैं, पर एक पल लगता है गरम होने में । हम एक पल में माचिस की तीली बन बैठते हैं और सुलग जाते हैं । हम खुद को पहचानें। हम किसकी विपश्यना और अनुपश्यना कर रहे हैं ? | 19 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy