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अब तक तूने राज किया है ........
रे मन तू अभी तक अपने मन की करता रहा, लेकिन अब मैं समझ गया हूँ, सँभल गया हूँ
अब तक तूने राज किया है, अनुचर मुझको बना दिया है। अब मैं तुझ पर राज करूँगा, यह मैंने संकल्प लिया है। रे मन, हो जा कुछ पल मौन। देख सकूँ मैं जो है जैसा, समझ सकूँ मैं कौन !
हे मेरे मानव-मन, अब तू थोड़ा शांत हो, थोड़ा धीरज धर, सहनशीलता से आतापी बनकर अपना और खुद को देखने का प्रयत्न कर कि 'मैं' कौन हूँ !
अभी तो हमारा धर्म वह है जो हमें धर्म की किताबें बताती हैं। फिर हमारा धर्म वह होगा जो हमें हमारी अन्तरात्मा प्रेरणा देगी। सच्चा धर्म, सच्चे प्रभु बातों में नहीं होते, प्रार्थनाओं के पाठों में नहीं होते। भीतर की प्रत्यक्ष अनुभूति में प्रभु का निवास होता है। अभी तो हमारे हाथ में न आत्मा है और न परमात्मा। अभी तो काया, काया की वेदनाएँ, श्वास या हमारा चित्त, हमारा अन्तरमन, उसमें उठने वाली तरंगें, उसमें स्थित यादें या हमारे भीतर उठने वाले संस्कार, क्रोध, कामनाएँ, इच्छाएँ, तृष्णाएँ यही सब हमारी अनुभूति में आते हैं। हम सभी अनुभव में आने वाली इन सभी चीजों के मर्म को समझें और बारीकी के साथ अनुपश्यना करने का भगीरथ प्रयास करें।
जब चित्त के उठा-पटक शांत हो जाएँगे, काया के प्रभाव और दुष्प्रभाव से मुक्त हो जाएँगे, तब हमारे सामने जो अध्यात्म के द्वार खुलेंगे, चेतना का जो प्रकाश होगा, अन्तरात्मा का जो कमल खिलेगा, अनासक्ति का जो फूल खिलेगा, बुद्धत्व का जो प्रकाश और आलोक उदय होगा वह अनिर्वचनीय होगा। ‘अप्प दीवो भव' । अपने दीप स्वयं बनो।
____ आप सभी इस अद्भुत-विलक्षण आनन्द की, अपूर्वकरण की दशा को उपलब्ध हों, इसी मंगल-भावना के साथ आपकी निरन्तर उज्ज्वल हो रही अन्तर-दशा को नमस्कार !
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