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________________ वह केवल सचेतनता है। प्रयास और अभ्यास तो पूर्व भूमिका की तरह हैं, प्रवेश द्वार की तरह हैं। लेकिन सत्य से साक्षात्कार के लिए चिंता और चिंतन से मुक्त होना आवश्यक है। चिंता चिंतन समय गँवाया, मैं क्या हूँ यह सोच न पाया। वह पुस्तकों के आधार पर नहीं स्वयं के अनुभव से जानता है कि यह नित्य है और यह अनित्य, क्या है भोगने और त्यागने योग्य । कौनसा पथ अनुगमन करने योग्य और कौनसा त्यागने योग्य है। वह आरोपण नहीं करता, उसकी अन्तरात्मा जो देखती है वह वैसा ही करता है। साधक का कोई नियमउपनियम नहीं होता वह सहजमार्गी होता है। भीतर से जो सहज में प्रेरणा मिलती है वह वैसा ही करता है। कारण, कार्य और परिणाम तीनों को भलीभाँति जानता है। तूने मुझको खूब नचाया, विषयों के पीछे दौड़ाया। चिंता चिंतन समय गँवाया, मैं क्या हूँ यह सोच न पाया। दूसरों पर तो खूब गौर किया, लेकिन स्वयं को न देख पाए। क्या किसके लिए किया यह तो याद है, दूसरे ने हमसे क्या कुछ कह दिया ऐसी बेकार की बातों को जीवन भर ढोते रहते हैं लेकिन क्या कभी एकांत में बैठकर यह सोचा है, चिंतन किया या जानने का प्रयत्न किया कि मैं क्या हूँ, कौन हूँ, मेरी चेतना किसमें उलझी है, इस जीवन की क्या सार्थकता है, गंदगी से भरी हुई काया की किसमें धन्यता है। क्या मुझे इन्हीं भोगों में रहना है, क्रोध-कषाय करते रहना है, इसी तरह खाते-खाते जीते रहना है। हम लोग नहीं सोच पाते हैं। कोई-सा ही बड़भागी होता है, कोई-सा ही ऐसा योगी होता है, कोई-सा ही ऐसा श्रावक होता है, कोई-सा ही ऐसा संत होता है जो एकांत में बैठकर अपने बारे में सोचने का प्रयत्न और पुरुषार्थ करता है। इस काया में जो जीते-मरते हैं क्या वही मैं हूँ या इसके अलावा भी मेरा कोई स्वरूप है, मेरा कोई अस्तित्व है ? हमारी स्थिति उस गधे जैसी है जो घर से घाट और घाट से घर के बीच में डोलता रहता है। कभी बीच में समझ आ जाती है, तो व्रत, उपवास, नियम कर लेते हैं लेकिन फिर वहीं के वहीं। कभी कुछ सुनते रहे, कभी कुछ सुनाते रहेघाणी के बैल की तरह वहीं चक्कर लगाते रहते हैं, जी रहे हैं, चल रहे हैं। क्योंकि मरे नहीं है, अटके या रुके नहीं हैं। 154 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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