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________________ चलाएँ। शांति-प्रशांति को गहरा होने दें। शांति में ही स्वानुभूति का सत्य समाहित है। शांति में ही मुक्ति का बीजांकुरण होता है। बस, हम इस भाव को, इस मनोदशा को गहरी करते जाएँ- अन्तर्द्वन्द्व से स्वतः छुटकारा मिलता जाएगा। वैर-वैमनस्य, दुःख-दौर्मनस्य का अवसान होता जाएगा। आप संबोधि की ओर बढ़ते जाएँगे। हम बस, आराम से बैठें, आराम से अपने-आप को देखते रहें, देखते रहें, डूबते जाएँ। कोई विश्लेषण न करें। हर विचार को दूर करते रहें। बस, सुख और शांतिपूर्वक देखते रहें, डूबते रहें देखते रहें, डूबते रहें स्वयं की आध्यात्मिक सच्चाइयों से रूबरू होते रहें। श्वास से शरीर, शरीर से दिमाग, दिमाग से ज्ञान और ज्ञान से स्वयं की ओर बढ़ते रहें। ध्यान रखें सम्यक् अनुपश्यना के लिए जब बैठें तब अपनी सारी हरकतों को मौन कर दें जैसे शरीर का हिलना, देखना, बोलना और सोचना। हालांकि ध्यान या अनुपश्यना के दौरान बहत से विचार हमारे मन में उभरते रहते हैं। जब विचार आते हैं, तो कई जाने-अनजाने प्रश्न भी उठ खड़े होते हैं। मन और चित्त को, या मन और बुद्धि को भावातीत करने के लिए हम अपनी नैसर्गिक साँसों पर ध्यान दें। विचार, सवाल उठे तो उनसे चिपक मत जाइए। पुनः प्राकृतिक साँसों पर ध्यान दीजिए। ऐसे करने से खुद-ब-खुद हमारी प्रज्ञा जागृत हो जाएगी। हम प्रकाशित होते जाएँगे। हम निर्मल स्थिति को प्राप्त करेंगे। हमें विशिष्ट शक्ति, विशिष्ट सुख, विशिष्ट शांति, विशिष्ट आनंद की अनुभूति होगी। तब हम एक अद्भुत स्वास्थ्य, शांति, ज्ञान, सौभाग्य और समझ-बूझ के धनी होंगे। अपनी अन्तर्यात्रा के लिए अभी कुछ देर पहले एक सुंदर-सी कविता पढ़ रहा था। उसके उसके सुंदर अध्यात्म-भाव को भी भीतर उतरने दें। रे मन हो जा कुछ पल मौन । देख सकूँ मैं जो है जैसा, समझ सकूँ मैं कौन ! यह मन हर समय चलायमान है। दिन में दिन के सपने देखता है, रात में रात के सपने देखता है। दिन में शेखचिल्ली तो रात में ययाति बन जाता है। यह हर समय कुछ-न-कुछ करता रहता है। हाथ को तो फिर भी बाँध कर रख सकते हैं लेकिन मन को बाँधकर नहीं रख सकते । काया को स्थिर करके ध्यान में बैठ सकते हैं, पर चित्त को स्थिर करके ध्यान में नहीं बैठा जा सकता। उसे तो धीरे-धीरे साधना पड़ता है। ज्यों-ज्यों हम सत्य से साक्षात्कार करेंगे त्यों-त्यों 151 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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