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मनाओ। यह तो व्यवस्था है। जन्म और मरण दोनों ही एक व्यवस्था है। अज्ञानी/अशक्त एक में खुश होता है, एक में आँसू ढुलकाता है । ज्ञानी दोनों में ही सहज रहता है।
जैसे प्रकृति परिवर्तनशील है वैसे ही मन की अवस्था है। साधक बोध रखे कि कोई टेढा शब्द बोल दे तो उसे मन में लेकर न बैठे क्योंकि अगर आज उल्टा निकल गया तो कल वापस सीधा कर लेंगे। मन में लगाने से हम क्रोधित होंगे, उद्विग्न होंगे, खिन्न और दुःखी होंगे। जो जैसा करना चाहे, उसे वैसा करने की आज़ादी दो, स्वयं को उसमें मत डालो। प्रकृति जब जो करती है तब वो करती है, किसी का हस्तक्षेप पसंद नहीं करती। इसलिए जो जैसा करता है उसे करने दो। अगर आपको लगता है कि वह ठीक नहीं कर रहा तो एक बार सावधान अवश्य कर दो उसके बाद भी वह करना चाहता है तो उसे उस पर छोड़ दो । स्वयं को बाँधो मत और न ही चित्त को उद्विग्न करो । उसके दुष्परिणामों का जिम्मेदार वह स्वयं होगा । हमें तो अपने चित्त की परिवर्तनशीलता को भलीभाँति समझते रहना है। ___जब भी ध्यान करें, अनुपश्यना करें तब देखते रहें दो मिनिट पहले कुछ और भाव थे अब वे भाव नहीं हैं। चित्त बदल गया। साधना का लक्ष्य लेकर बैठे थे लेकिन अब वह साधना का भाव नहीं है, अब फिर चित्त बदल गयायह ही तो सत्य से साक्षात्कार है, चित्त के सत्य से साक्षात्कार ! जीवन में जो कुछ है उसका भलीभाँति प्रत्यक्ष अनुभूति के आधार पर जानना ही सत्य से साक्षात्कार है। चित्त की परिवर्तनशीलता को जानने वाला व्यक्ति इसमें उठने वाले उद्वेगों, संवेगों से प्रभावित नहीं होगा। चित्त के गुणधर्मों को पहचानकर उसके प्रभावों से मुक्त रहेगा। देह में कामभोग के भाव उठते हैं, चित्त प्रभावित होता है लेकिन उसकी अनुपश्यना करने पर वे विलीन हो जाते हैं, सदा नहीं रहते । एक घंटे तक भी नहीं । साँस भी आती है जाती है, काया में भी वेदनासंवेदना का उदय होता है, विलय होता है। ठीक इसी तरह व्यक्ति के चित्त में, तरंगें उठती हैं और गिरती भी हैं। उठना-गिरना सागर की लहरों की तरह होता है जो पल-पल बदलती रहती हैं। इसके उपरान्त भी जो साधक पुनः पुनः अनुपश्यना करता है वह अपने चित्त को शांतिमय बनाने में सफल होता है। चित्त की अनुपश्यना करने में भी सफल होता है। अपने चित्त को आनन्दमय बनाने में भी सफल होता है। यह मन जिसे अपने वश में करना कठिन होता है, फिर भी
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