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उसने थाली निकाली और कहने लगा- प्रभु, सब तेरी मेहरबानी है। तू सबका ख्याल रखता है।
संत ऐसा कुछ बोल रहा था कि अचानक उसी जंगल से एक राहगीर गुजरा। उसने संत को बैठे देखा तो उसने अपनी पोटली में से दो रोटी निकाली और संत की थाली में डाल दी। राहगीर आगे बढ़ गया। संत मुस्कुराया और पुनः कहने लगा- प्रभु तेरी बड़ी रहमत है, तू सबका ख्याल रखता है।
संत ने खाना खाने के लिए हाथ धोए, प्रभु की प्रार्थना करने के लिए आँखें बंद कीं। संत मन-ही-मन प्रार्थना कर रहा था कि तभी एक कुत्ता आया। संत की थाली में से रोटी उठाई और भाग निकला। संत ने आँख खोली तो रोटी गायब! संत व्याकुल न हुआ, कुत्ते के पीछे न दौड़ा। संत ने पुनः यह कहते हुए थाली अपनी झोली में डाल ली कि प्रभु ! तेरी रहमतें बड़ी हैं। तू कभी-कभी मुझे खुद ही उपवास करने का सौभाग्य दे देता है।
संत का इतना कहना था कि राजा पेड़ की ओट से बाहर निकल आया। उसने संत के चरण-स्पर्श किए। उनकी शांति-समता-समरसता का अभिनंदन किया। राजा ने कहा- प्रभु, मैं अपनी जिंदगी में अगर कभी संत बनूँ तो मुझे भी
आप जैसी ही यह तटस्थता प्राप्त हो । सचमुच, ऐसा सद्भाव आने से हमारे मन में वेदना नहीं होगी, दबाव नहीं होगा, तनाव और खिंचाव भी नहीं होगा। असहजता नहीं होगी, दुःखद वेदना और संवेदना नहीं होगी कि हे भगवान ! तुझे इतना याद करता हूँ फिर भी भूखा रख दिया। साधक शिकायत भाव से ऊपर उठ जाए। जो है, जैसा है, उसमें आनंदित रहने का नाम ही साधना है। जो नहीं है, उसके प्रति लालायित होने का नाम ही विराधना है। साधक सहज रहे, हर उतार-चढ़ाव में सहज रहे। परिस्थिति को खुद पर हावी न होने दे। परिस्थितियों का स्वयं को गुलाम न होने दे। परिस्थितियाँ तो बदलती रहती हैं। वे एक-सी नहीं रहतीं। कभी लाभ का निमित्त आ जाता है, तो चित्त लोभित हो उठता है। कभी हानि का निमित्त आ जाता है, तो चित्त उद्विग्न हो जाता है। निमित्त बनते रहते हैं, बदलते रहते हैं। हम अगर निमित्त प्रधान जिंदगी जीते रहे, तो हो गई साधना।
एक प्रेरक कहानी राजा भर्तृहरि से जुड़ी हुई है कि वे संन्यस्त होकर जंगलों में चले गए और पहाड़ों की गुफाओं में बैठकर ध्यान-साधना करने लगे। एक दिन जहाँ वे बैठे थे ठीक उसके सामने तलहटी पर उन्हें एक अद्भुत
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