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________________ जमीन पर जो कुछ होता रहता है, उसे देख लेते हैं, पर उससे प्रभावित नहीं होते । वे न तो उसे ग्रहण करते हैं और न ही यह समझते हैं कि अमुक तत्त्व ग्रहण करने योग्य नहीं है। हमारी पाँचों इन्द्रियों के गुण-धर्म हमें लालायित, प्रेरित और आकर्षित करते रहते हैं। जैसे साँप और कुत्ते की जीभ लपलपाती है वैसे ही हमारी इन्द्रियाँ बाह्य सुख के लिए लपलपाती हैं। हमारे ऊपर जब तक अज्ञान हावी है, शरीर और आत्मा भिन्न है। यह सम्यक्त्व, यह बोध, यह ज्ञान हासिल नहीं हो जाता तब तक हम भी इन्द्रियों के इसी तरह के अनुकूल गुणधर्मों के प्रति ऐसे ही आकर्षित होते रहेंगे। प्रतिकूलताएँ हमें झेलनी पड़ती है लेकिन अनुकूलताओं के प्रति हमारा चित्त, हमारा अन्तरमन आकर्षित होता रहता है। थोड़ा-सा और मिल जाए, थोड़ा कहीं और चले जाएँ, थोड़े गहनेकपड़े और मिल जाएँ, थोड़ा-सा भोजन और स्वादिष्ट मिल जाए, थोड़े से भोग के साधन और मिल जाएँ। अर्थात् और-और की कामनाएँ अज्ञान का ही परिणाम है। साक्षी, तटस्थ, आत्मभाव में स्थित रहने वाला व्यक्ति इन चीजों के लिए मचलता नहीं है। मिला तो ठीक, न भी मिला तो आनंद भाव । मुझसे किसी ने पूछा कि संत की परिभाषा क्या है ? तो मैंने कहा- आप ही बता दें कि संत की सच्ची परिभाषा क्या है। वे आहारचर्या के लिए जा रहे थे। उन्होंने कहा- मिल गया तो खा लिया और न मिला तो संतोष कर लिया यही संत की परिभाषा है। मैंने कहा- यह तो ठीक है लेकिन इसमें थोड़ा-सा सकारात्मक दृष्टिकोण हो कि मिल गया तो बाँटकर खाया और न मिला तो यह सद्भाव रखा कि आज प्रभु ने कृपा की कि आज मुझे उपवास करने का पुण्य अर्जित हुआ। कहते हैं एक संत किसी जंगल में अपनी कुटिया बनाकर रहता। बड़ा अनूठा, औलिया संत । सर्दी होती तो कुटिया के भीतर रहता, गर्मी होती तो कुटिया के बाहर पेड़ की छाया में आनंदित रहता। वह भोजन बनाता भी नहीं था और भिक्षाचर्या के लिए गाँव में भी नहीं जाता। दोपहर के 12 बजे भोजन करता। राह चलता जो राहगीर उसकी थाली में डाल देता, वह उसे प्रभु का प्रसाद समझकर ग्रहण कर लेता। एक दिन राजा उस संत की उस साधुक्कड़ी को देखने के लिए पेड़ की ओट में छिपकर बैठ गया। वह देखने लगा कि बिना माँगे उसकी रोटी की व्यवस्था कैसे होती है। वह ठीक 12 बजते ही भोजन के लिए तैयार हआ। 110 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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