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________________ पाँव पर गिर पड़ा। भगवान के पाँव से खून बहने लगा। पीड़ा भी हुई होगी। तत्काल शिष्य दौड़े ऊपर देखा तो पाया कि देवदत्त ने यह कारनामा किया है। लेकिन देवदत्त वहाँ से भाग निकला। शिष्य देवदत्त का पीछा करना चाहते थे, पर बुद्ध ने मना कर दिया। शिष्य बुद्ध को उठाकर चैत्य-विहार में ले आए। ज़ख्म इतना गहरा था कि खून रुक ही नहीं रहा था। शिष्य उस समय के प्रसिद्ध वैद्य जीवक के पास पहुंचे। जीवक संतों और मुनियों की अत्यंत भक्ति भाव से सेवा करता, उनका उपचार करता । जीवक ने घाव की गहराई देखकर तेज दवा बाँध दी, ताकि रुधिर जल्दी रुक जाए। जीवक को दूसरे स्थान पर जाना था अतः उसने कहा- मैं साँझ तक वापस लौट आऊँगा, यह दवा बहुत तेज है। अतः इसका रातभर बँधे रहना ठीक नहीं है। मैं शाम को पट्टी इत्यादि खोल दूँगा। ऐसा कहकर जीवक चला गया। इत्तिफाक की बात साँझ होने आ गई, वैद्य दूसरे गाँव से लौट न पाया। जब वह नगर कोट तक पहुँचा तब तक रात हो गई और नगर के दरवाजे बंद हो गए थे। जीवक को प्रायश्चित होने लगा कि उसने भगवान को इतनी तेज दवा बाँध दी है कि भगवान को रातभर नींद भी न आएगी। इस अवहेलना, आशातना, उपेक्षा, वेदना का आधार वह स्वयं ही होगा। वहीं बैठे-बैठे उसने श्री भगवान से कहा- प्रभु, मुझे क्षमा करें मैंने आपको तेज दवा की पट्टी तो बाँध दी लेकिन खोलने के लिए मैं समय पर नहीं पहुंच पाया। दूसरे दिन सुबह जीवक वैद्य गौतम बुद्ध के पास पहुँचे, क्षमा प्रार्थना कर कहने लगे- मैं समय पर न पहुँच पाया, मुझे क्षमा कर दें। बुद्ध ने मुस्कुराते हुए कहा- निश्चय ही तुम न पहुँच पाए, पर तुम्हारा संदेश मुझ तक पहुँच गया था। नगर के द्वार पर बैठकर तुमने जो प्रार्थना की थी वह मुझ तक पहुंच गई और मैंने पट्टी खुलवा ली। जीवक ने कहा- अच्छा किया भगवन्, पर दिन भर तो आपको बहुत वेदना हुई होगी, कष्ट हुआ होगा। तब बुद्ध ने जीवक से दो पंक्तियाँ कहीं- हे वैद्य, बुद्ध के कष्ट तो उसी दिन समाप्त हो गए थे जिस दिन बोधि-वृक्ष के नीचे उसे बोधि-लाभ अर्जित हुआ था। इन्सान के जीवन में तभी तक कष्ट रहते हैं जब तक उसके जीवन में अज्ञान, अबोध दशा, असत्य का, मिथ्यात्व का प्रभाव होता है। जब व्यक्ति जीवन और जगत के मर्म को समझ ले कि क्या नित्य है और क्या अनित्य है, 108 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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