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________________ साधना के सोपान एक छोटी-सी नजर आने वाली बिंदी कितना मूल्य रखती है। श्रद्धा जीवन की आँखों में रहने वाली बिंदी की तरह है। यह बिंदी ही आँख की आत्मा है। इसी से प्रकाश है, इसी से सारे दृश्य जगत् की संभावना जुड़ी है। मैं इसे श्रद्धा की बिंदी कहँगा। जहाँ श्रद्धा बलवान है, वहाँ यदि गुरु कमजोर भी निकल जाए, तो हृदय की श्रद्धा स्वत: व्यक्ति को पार लगा देती है। __ मैं श्रद्धा का पुजारी हूँ। पर श्रद्धा का कभी दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। जो गुरु किसी की श्रद्धा का उपयोग अपने स्वार्थ के लिए करना शुरू कर देता है, वह आत्म-पतन का ही सूत्रधार होता है, मुक्ति का नहीं। कोई भी साध्य श्रद्धा से ही सधता है। ईश्वर का निवास किसी आसमान में नहीं, वरन् वहाँ है, जहाँ जिस हृदय में ईश्वर के प्रति श्रद्धा और समर्पण है। श्रद्धा वह नौका है, जो हृदय के सागर में चलती है। समर्पण हो - न सिर्फ साध्य के प्रति, वरन् साधन के प्रति भी। श्रद्धा ही तो शिष्यत्व की पहचान है। शिष्य अगर सही है, श्रद्धा अगर पूर्ण है, तो सद्गुरु चाहे उससे सैकड़ों कोस दूर भी क्यों न हो, उसे आना ही पड़ेगा। श्रद्धा सिद्धांतों का ढिंढोरा पीटना नहीं है। इससे तो श्रद्धा को उलटा खेद होता है। श्रद्धा तो भीतर की तरंग है, जीवन का आभामंडल है। श्रद्धा केवल शिष्य को ही तरंगित नहीं करेगी, वरन् जो भी उसके संपर्क में आएगा, वह भी श्रद्धा के प्रकाश से भरेगा। श्रद्धा सुषुप्ति है। नींद आते ही आदमी दुनिया से बेखबर हो जाता है। उसे चित्र की तो चिंता रहती ही नहीं है, शत्रु की भी वह चिंता नहीं करता। नींद बड़ी मीठी होती है। श्रद्धा नींद है। नींद से बेहतर मिठास और कहाँ, जिसमें आदमी सुख-दु:ख, भूख-प्यास, अमीरी-गरीबी, सब भूल जाता है, सारे भेदभाव भूल जाता है। श्रद्धा नींद की तरह मीठी है। जिसके प्रति श्रद्धा हो गई, उसके लिए तो उससे बढ़कर और कोई तीर्थ नहीं है। श्रद्धा प्रेम है, पर प्रेम होते हुए भी प्रेम से बढ़कर है। प्रेम तो पति-पत्नी के बीच भी होता है। प्रेम शारीरिक भी हो सकता। श्रद्धा विशुद्ध प्रेम है। प्रेम की सबसे उज्ज्वल-निर्मल दशा का नाम श्रद्धा है। श्रद्धा का शरीर से कोई संबंध नहीं होता। श्रद्धा हृदय की अभिव्यक्ति है, हृदय की प्यास है। हृदय का समर्पण है। हृदय का फूल है। श्रद्धापूरित हृदय से निकलने वाले आँसू कोरा पानी नहीं है, वह हृदय की अंजुरी है। बात इंदौर की है। ढलती दोपहर का समय, करीब चार बजे होंगे। शाम के छह बजे इंदौर से प्रस्थान करने वाले थे। सुबह एक अजीज आत्मीय साधिका मीराजी ने अपने घर चलने के लिए मुझसे आग्रह किया। मैं व्यस्तता के बावजूद उनकी बात Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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