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________________ 70 अन्तर के पट खोल बात अलग है। उनका दीया तो तैयार है, बस ज्योति की याद आनी चाहिए। आम आदमी को तो ज्योति की खोज करनी होती है, चिंगारी को ढूँढ़ना होता है, समर्पित होकर, संकल्प पूर्वक, एक स्मृतिलय होकर, अँतर्लीन होकर। साधकों का योग श्रद्धा, वीर्य, स्मति, समाधि और प्रज्ञापूर्वक सिद्ध होता है और वह भी क्रमश: - 'श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वकम् इतरेषाम्'। ___साधना के ये चरण बहुत सारे लगते हैं, पर ये वास्तव में एक ही हैं या एक जैसे हैं। शब्दों का थोडा-बहत फर्क है। शाब्दिक अर्थों में भी कुछ भेद हो सकता है, पर समाधि का मार्ग स्वयं समाधि ही है, इसके लिए हमें श्रम कुछ नहीं करना है। आवश्यकता है मात्र ध्यान की। ध्यान में सब कुछ आ जाते हैं, श्रद्धा भी, स्मृति भी, संकल्प भी, प्रज्ञा भी। अलग-अलग शब्द तो इसलिए परोसे गए हैं, ताकि बारीकी को अलग-अलग ढंगों से देख सकें, जान सकें। मूलत: तो ध्यान की ही जरूरत है, मन को केंद्रित करने की जरूरत है। जहाँ मन रसलीन होगा, वहाँ वह टिकेगा भी, उसमें श्रद्धा भी होगी, उसके लिए वीर्य/पुरुषार्थ भी होगा, उसकी स्मृति/याद भी आएगी। उसमें समाधिस्थ/निमग्न भी रहोगे। बुद्धि से उसका रिश्ता भी होगा। सिद्धत्व तो सबका संगम है, किंतु सबका लक्ष्य और आधार तो एक ही है। अमृत सबसे जुड़ा हुआ है और अमृत सबका आधार है। श्रद्धा का संबंध हृदय से है। वीर्य अर्थात् सामर्थ्य का संबंध शरीर से है। स्मृति का संबंध मन से है और समाधि-प्रज्ञा का मस्तिष्क से, निर्मल बुद्धि से। गीता के श्लोक भी इस तथ्य की पुष्टि करेंगे। आगम और पिटक भी यही कहेंगे। मजहबों और शास्त्रों की अनेकता को देखकर मार्ग को अनेक मत मान लेना। जीवन का द्वार तो वही है और सब ले जाना भी उसी द्वार पर चाहते हैं। शब्दों और अभिव्यक्तियों का भेद कोई विशेष अर्थ नहीं रखता। मूल्य तो जीवन का है, जीवन में श्रद्धा-सामर्थ्य और स्मृति की खिलावट का है। जीवन में परम चैतन्य को आत्मसात् करने का है। श्रद्धा का अर्थ है समर्पण । श्रद्धा एकमात्र मार्ग है। सारे मार्गों की शुरुआत इसी एक मार्ग से होती है। श्रद्धा एक अकेला ऐसा मार्ग है, जो मंजिल तक पहुँचा देता है। धर्म के मूल में बिना श्रद्धा के व्यक्ति काली बिंदियों से शून्य आँखों की तरह है। __कहते हैं : किसी चित्रकार ने एक सुंदर-सा चित्र बनाया और इस आशा के साथ कि इस चित्र में कोई कमी नहीं निकाल सकता, वह माइकल एजिलो के समक्ष प्रस्तुत हुआ। एंजिलो ने चित्र देखा और तारीफ की, पर उस चित्र में कमी क्या है, यह वह चित्रकार न जान सका। वह कमी दूर की एंजिलो ने। उसने अपनी तूलिका उठाई और आँखों में दो काली बिंदियाँ लगा दीं। चित्र अब सचमुच मुखर हो चुका था, जीवंत और अद्भुत। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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