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________________ साधना के सोपान होने के लिए कुछ पुराने को छोड़ना ही होगा। जरूरत है सिर्फ साहस की, हिम्मत की। सारा चमत्कार हिम्मत का ही है। जो घेरा हमें बना-बनाया मिला है विरासत के रूप में, उससे चिपके रहना तो अध्यात्म की भाषा में राग है, संकुचितता है। केवल राग के लिफाफों को चिपकाने का काम ही करोगे या उन्हें खोलोगे भी? खुद के द्वारा जैसा भी होगा, जो भी होगा वह हमें और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित ही करेगा। आखिर अपने बनाए पद-चिह्नों को देखने का मजा ही कुछ और होता है। यह मजा आनंद है। यह आनंद सिर्फ उसी व्यक्ति से जुड़ सकता है, जो आत्म-केंद्रित हो गया है। __ आत्म-केंद्रीकरण का नाम ही जीवन में निजत्व और बुद्धत्व का उदय है और उसका विकेंद्रीकरण ही संसार के घेरे का निर्माण। निजत्व का बोध जीवन की महान उपलब्धि है, जीवन की गहन से गहन और ऊँची संभावनाओं को जन्म देने का आधार है। आत्म-केंद्रीकरण स्वार्थ नहीं, वरन् सच्चे अर्थों में साधा गया परमार्थ है। आत्मज्ञान या आत्म-बोध सिर्फ सच्चाई के आलोक का दर्शन ही नहीं कराता, वरन् स्वयं व्यक्ति को रोशन और ज्योतिर्मय कर देता है। यह व्यक्ति की अर्हत अवस्था है। यह परा पहुँच है। यहाँ तक पहुँचने के लिए दो तरह के व्यक्ति होते हैं। एक तो वे, जिनमें जन्मजात यह प्रतिभा होती है। दूसरे वे होते हैं जिन्हें यह प्रतिभा आत्मसात् करनी होती है। जो जन्मजात प्रतिभा संपन्न होते हैं, वे वास्तव में पूर्व जन्म के संस्कारों का परिणाम हैं। हरिभद्र ने उसे कुल-योगी कहा है और पतंजलि ने 'भवप्रत्यय - भवप्रत्ययो विदेह-प्रकृतिलयानाम्। ___ 'भव-प्रत्यय' वे लोग हैं, जो पूर्व जन्म में विदेह-अवस्था तक पहुँच चुके थे, किंतु कैवल्य-प्राप्ति से पहले ही चल बसे। हालांकि पुरानी धर्म-किताबों में तो ऐसे लोगों के लिए योग-भ्रष्ट' कहा गयां है, पर मैं इस गलती को न दोहराऊँगा। व्यक्ति योग-भ्रष्ट तो तब होता है, जब वह योग के मार्ग से स्खलित हो जाता है, फिसल जाता है, जैसे मेनका से विश्वामित्र। मृत्यु होने से योगी योग-भ्रष्ट नहीं होता। मृत्यु तो जीवन का सिर्फ पड़ाव है। एक शरीर छूटा, तो दूसरे से यात्रा चालू हो गई। एक चप्पल घिस गई तो दूसरी पहन ली। इससे योग के सातत्य में पड़ाव के सिवाय और कोई बुनियादी असर नहीं पड़ता। शंकराचार्य की तो युवावस्था में ही देह-विलय हो गई थी। उन्होंने जो पाया और जो उचारा, वह वास्तव में उनके पूर्व जन्म के योगप्रवाह के सातत्य का प्रतिफल था। नचिकेता यमराज के पास जाकर भी वापस लौट आया। यह एक छोटे बच्चे का भव-प्रत्यय' है। महावीर के शिष्य ‘अतिमुक्त' ने मात्र दस वर्ष की उम्र में अमृत-पद प्राप्त कर लिया था। प्रतिभा का संस्कार-सातत्य कब अपना अमृत-पुष्प खिला लेता है, इसका कोई मीटर/मापक-यंत्र नहीं है। जिनके जीवन में पूर्व जन्म के प्रवाह के सातत्रा के कारण कुछ होता है, उनकी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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