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________________ अन्तर के पट खोल को टाल न सका। दोपहर में साढ़े तीन-चार बजे जब उनके घर जाने को तैयार हए, पाया कि जमीन काफी तप रही है। मैं जैसे ही चार कदम चला कि वीजे ने आकर इस गर्म सड़क पर जाने से मना किया। मुझे कहना पड़ा, जबान दी हुई है, जाना होगा। उसने मुझसे पादरक्षक पहन लेने का आग्रह किया। मैं पादरक्षक पहनना नहीं चाहता था। मैं बिना पादरक्षक पहने ही निकल पड़ा। कुछ आगे बढ़ा, पर न जाने क्यों मुझे पीछे मुड़कर देखना पड़ा। मैं चौंका, क्योंकि वीजे पादरक्षक को हाथ में लिए झुकी कमर खड़ी है। मुझे रुकना पड़ा। मैंने पाया कि उसकी आँखों से आँसू झर रहे हैं। मुझे लौटना पड़ा। पादरक्षक स्वीकार करने पड़े। यह उस पवित्र आत्मा की श्रद्धा थी, सेवा थी, भावना थी। मुझे लगा, ये वैसे ही आँसू थे, जैसे द्रौपदी ने अपने दुपट्टे का एक टुकड़ा फाड़कर कृष्ण की अंगुली पर बाँधा हो। मैं उनके प्रति आदर और आत्मीयता से भर उठा। मेरे लिए श्रद्धा एक बहुत बड़ा मार्ग है। श्रद्धा से ज्यादा अभिनंदनीय तत्त्व और कोई नहीं है। श्रद्धा साधना की आदि है, मध्य है और यही अंतिम भी। श्रद्धा और समर्पण की सबसे ज्यादा मात्रा स्त्रियों में होती है। स्त्रियाँ ध्यान और भक्ति के मार्ग पर जल्दी गति कर सकती हैं। पुरुष की यात्रा बुद्धि से होती है, पर स्त्रियों की श्रद्धा से। एक वैज्ञानिक है, दूसरा हार्दिक है। धर्म विज्ञान का नहीं, हृदय का मार्ग है। धर्म हृदय का प्रवाह है और श्रद्धा इसका मूल स्रोत है। जरा अपना मन टटोलो - अभी श्रद्धा कहाँ है ? अभी तो पूँजी के प्रति है, पद के प्रति है, प्रतिष्ठा के प्रति है। जिस पूँजी के पिछलग्गू बने हो, वह तो जीवन-यापन के लिए है। पूँजी साधन है, साध्य नहीं। यह बोध रहे, तो पूँजी बाधक नहीं है। पूँजी साध्य बनने पर ही बाधक है। वह व्यक्ति जड़बुद्धि है, जो जीवन को पूँजी के लिए खर्च कर रहा है। मनुष्य पैसे-पूँजी से इतना चिपका है कि - एक संभ्रांत व्यक्ति के द्वार पर किसी के पैरों की आहट सुनाई दी। उसने अपना चश्मा ठीक तरीके से लगाते हुए पूछा, कौन है ? आगंतुक ने कहा, तेरी मौत। व्यक्ति चौंका। उसने कहा, तब कोई हर्जा नहीं है। मैंने सोचा, कहीं इनकमटैक्स वाले तो नहीं आ गए। तुम आ गए, चलेगा; वे नहीं आने चाहिएँ। तुम दमड़ी के इतने गुलाम हो गए हो कि मृत्यु स्वीकार्य है, पर धन का नुकसान नहीं। अभी तुम्हारी श्रद्धा जीवन के प्रति नहीं, पूँजी के प्रति है। तुम्हें चिंता आयकर वालों की है, मृत्यु की नहीं। असली पूँजी तो जीवन है, परमात्मा है। उसे बचाएँ। उसके संरक्षण की सोचें। वह कहीं हाथ से न छिटक जाए। जीवन है, तो सबका मूल्य है। जीवन चला गया, तो सारे मूल्य निर्मूल्य हैं। हम चाहे जिसे मूल्य दें, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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