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________________ अंतर के पट खोल 43 तुम जीते हो दुनिया में, दुनिया के लिए। दुनिया के लिए कहना भी ठीक न होगा; जीते हो पाँच-पच्चीस लोगों के साथ रागात्मक संबंधों में, सौ-दो सौ गज जमीन के ममत्व-पोषण में। अपने लिए कहाँ जीते हो! अपने लिए तो निरंतर मृत्यु की ओर बढ़ रहे हो। जीवन मरने के लिए नहीं, जीने के लिए है – निजत्व के फूल को खिलाने के लिए है। हम लगे हैं दूसरों को जानने में। पर क्या अब तक कोई किसी को संपूर्णत: जान पाया ? पुत्र पिता तक को नहीं जान पाया। कौन आदमी भीतर से कैसा है, कोई नहीं कह सकता। दूसरों को जाना नहीं जा सकता, मगर खुद को जाना जा सकता है। चूंकि स्वयं को जानना संभव है, इसीलिए तो निवेदन कर रहा हूँ। काश, जी सको आत्म-अस्तित्व के लिए, सारा संसार अस्तित्व की उज्ज्वलताओं से भरा होता। फिर स्वतंत्रता के गीत किसी राष्ट्र के नहीं, वरन् खुद के गाए जाते, प्राणिमात्र के गाए जाते। जरूरत है बोध के रूपांतरण की। मनुष्य के पाँव हैं कारागृह में। स्थिति इतनी विचित्र है कि हमने कारागृह को बंधन नहीं, बल्कि घर मान लिया है। गुरु का दायित्व है पिंजरा खोलना। मगर मुसीबत तो यह है कि यदि कोई पिंजरे को खोले भी, तो पंछी उड़ने के लिए तैयार नहीं है। वह सोचता है 'कारा' ही सही, पर है तो जाना-पहचाना, चिरपरिचित। आकाश की विराटता अज्ञात है। आकाश के मधुरिम संगान सुने तो काफी हैं, पर क्या पता, वह पिंजरे से खतरनाक हो। पाँवों में जंजीर भले हो, निकासी का द्वार बंद हो, पर रहने-खाने का तो प्रबंध है ही, असुरक्षित तो नहीं हैं। कौन उड़े अज्ञात में, अज्ञेय में ? लाखों में वही, जो विराट् होने का इच्छुक है, स्वयं के पंखों की क्षमता से विराटता को आत्मसात् करना चाहता है। कहते हैं : एक राहगीर किसी मुसाफिरखाने में रुका। वह रात को बिस्तर पर सोया ही था कि कमरे में टंगे पिंजरे में से तोते की आवाज ने उसका ध्यान आकर्षित किया। तोता एक ही शब्द बार-बार दुहरा रहा था - 'स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। शायद मालिक ने उसे यह सिखाया था। स्वतंत्रता शब्द के सुनते ही राहगीर को अपना अतीत याद हो आया। वह भी तो अपने देश के लिए कटघरे में, कारागृह में एक ही आवाज लगाया करता था – ‘स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता'। मेरा राष्ट्र स्वतंत्र हआ। तोता भी आजादी के लिए तिलमिला रहा है। पता नहीं किस मुए ने इसे कैद कर रखा है। उसे तोते पर तरस आई। उसने पिंजरे का द्वार खोल दिया। पर यह देखकर उसे आश्चर्य हुआ कि तोता पिंजरे से बाहर निकलने की बजाय और भीतर सिकुड़कर बैठ गया और स्वतंत्रता का आलाप गाए जा रहा है। राहगीर ने सोचा, शायद तोता उससे भयभीत है। उसने पिंजरे में हाथ डाला और बड़ी कठिनाई से तोते को बाहर निकालकर आसमान में उड़ा दिया। वह प्रसन्न था, इस बात से कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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