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________________ 44 अन्तर के पट खोल आज उसने किसी को आजादी दी। वह आराम से सोया। उसकी नींद तब खुली, जब उसने सवेरे तोते की आवाज सुनी - स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। उसने पाया कि तोता पिंजरे में बैठा आराम से भीगे चने और मिर्ची खा रहा है और बीच-बीच में उषा-गीत गा रहा है - स्वतंत्रता, स्वतंत्रता...। हँस रहे हो। अरे, सबकी यही स्थिति है। अरदास स्वतंत्रता की करते हो और कार्य परतंत्रता के। अशांति से उकता भी गए हो और उसे छोड़ना भी नहीं चाहते। परमात्मा को पाना चाहते हो, पर उसके लिए न्योछावर होने को तैयार नहीं हो। लोग मेरे पास आते हैं, कहते हैं, परमात्मा को कैसे प्राप्त करें; मन से बड़े परेशान हैं। मैं कहता हूँ, परमात्मा की बात बाद में करना, पहले स्वयं को शांतिमय बनाओ। ध्यान की सारी विधियाँ परमात्मा को पाने के लिए नहीं हैं, वरन् मन को शांत करने के लिए हैं। शांत मन ही परमात्मा का प्रवेश-द्वार है। पर हम हैं ऐसे कि कुछ शांति मिली और लौट गए। फिर अशांत हुए, फिर मेरे पास आए। समय काफी बीत रहा है, पर परमात्म-प्राप्ति के लिए नहीं, शांत मन:स्थिति पाने के लिए, पूर्व भूमिका बनाने के लिए। अशांति तब तक रहेगी, जब तक हम तनाव, तृष्णा, मूर्छा, अविद्या से घिरे रहेंगे। हम मन को तिरोहित करने की कला समझें। नींद लेते समय जैसे हम शरीर को शांत करते हैं, वैसे ही मन को भी सुला दें। मन का सोना ही हमारे लिए शांति का आधारभूत अनुष्ठान है। ऐसा करो, पहले बोधपूर्वक पाँच मिनट तक गहरे-लम्बे श्वास लो और छोड़ो। धीरे-धीरे उनकी गहराई तो बरकरार रखो, पर साँस की गति मंद करते जाओ। पहले साँसों के रेचन पर जोर दो, फिर ग्रहण पर। रेचन से चित्त की ऊहापोह शांत होती है। शांति के वातावरण में ही स्वयं का बोध साकार होने लगता है। निश्चय ही, आज नहीं तो कल, हर व्यक्ति अस्तित्व-बोध के लिए समर्पित होगा। अभी कहाँ जी रहे हो, जरा मन से पूछो। मन मस्ती का प्यासा है। उसकी सारी सक्रियता किसी-न-किसी मस्ती के आलम को टोहती है। स्वर्ग की तलाश में हाथ क्या आते हैं ? काँटे। उस स्वर्ग को काँटा न कहूँ, तो और क्या कहूँ जिसे पाने के बाद भी कुछ और, कहीं और पाना चाहते हो। स्वर्ग की सैर करके भी यदि संतुष्ट न हो पाए, तो वह स्वर्ग भी नरक की ही पीठ है। मन की एक सबसे बड़ी कमजोरी है कि वह अप्राप्त को प्राप्त करने के लिए उकसाता रहता है, किंतु प्राप्त होने पर वह जल्दी ही उससे ऊब जाता है। इसलिए मन की मस्ती मनुष्य के लिए अंतत: घुटन है। पता नहीं, मन कहाँ-कहाँ की फेरी लगाता फिरता है। मनुष्य की निगाहें तो दो हैं, पर मन के पास हजार आँखों का विश्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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