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________________ ध्यान और प्रेम : जीवन के दो आनंद सूत्र 113 का मूल कारण हमारे मन की ऊहापोह है। तनाव, चिंता, घुटन और अवसाद, ये सब मन की ऊहापोह और अशांति के कारण पनपते हैं। ये सब मन की दरारें हैं। मन से मुक्त होने का अर्थ है, मन का शांत होना। इसलिए शांति वास्तव में मन पर विजय है। मन की रौद्रता के रहते शांति कहाँ ? सौम्यता और शुभ्रता कहाँ ? रौद्रता अशुभ है और शुभ्रता शुभ। ध्यान तो रौद्रता से अलगाव है। वह शुभ में प्रवेश है। जो मन व्यक्ति के नियंत्रण से बाहर है, वह रौद्र है। मन का नियंत्रित होना ही शुभ्र और शुक्ल ध्यान है। मन जितना सुथरा होगा, ध्यान उतना ही तन्मय, उतना ही साफ/स्वच्छ होगा, और शाति उतनी ही पुरजोर होगी। सत्य जीवन है। जीवन का अस्तित्व सत्य के कारण ही है। सत्य कुंठित हो जाए, तो जीवन कुंठित कहलाएगा अथवा इसे यों कहिए कि जीवन कुंठित है, तो सत्य कुंठित कहलाएगा। मुझे सत्य से प्रेम है, उतना ही प्रेम जितना जीवन से है। जितना जीवन से प्रेम है, उतना ही सत्य से है। सत्य और जीवन के बीच दूरी नहीं है। दोनों एक दूसरे के पर्याय भर लगते हैं। तुम सत्य से प्रेम करके देखो, जीवन से स्वत: प्रेम होने लगेगा। सत्य जीवन का ही एक चरण है। हमारी वाणी में ही केवल सत्य न हो, हमारी नजर और हमारी सोच में भी सत्य की सुवास हो, सत्य की आभा हो। वस्तुत: भीतर और बाहर का भेद मिट जाना चाहिए। दोनों के बीच अभेद स्थापित होना ही तो सत्य है। सही सोच हो, सही दृष्टि हो, सही वाणी और सही व्यवहार हो, यही तो सत्य को जीने का मार्ग हैं ____मनुष्य स्वयं सत्य है। सत्य की प्राप्ति के मार्ग अनगिनत हैं। औरों की बात न भी उठाएँ, मनुष्य यदि मनुष्य को भी जान-समझ लेगा, तब भी उसकी उपलब्धि ओछी नहीं कहलाएगी। मनुष्य ने मनुष्य को जाना, मनुष्य ने मनुष्य को पाया, यह वास्तव में सत्य को ही जानना और पाना है। मनुष्य को जानने का मतलब है अपने आप को जानना। आत्म-ज्ञान इसी का दूसरा नाम है। कैवल्य और संबोधि इसी के शिखर हैं। आत्म-ज्ञान से बढ़कर सत्य को जानने का और कोई दूसरा बेहतरीन मार्ग नहीं हो सकता। मनुष्य विचारप्रधान भी है और भावप्रधान भी। वह बहिर्मुखी भी है और अंतर्मुखी भी। बहिर्मुखी के लिए अंतर्यात्रा कठिन है। अंतर्मुखी के लिए बहिर्यात्रा पहाड़ी पगडंडियों पर चलने जैसी है। विचारप्रधान व्यक्ति ज्ञानी है और भावप्रधान व्यक्ति प्रेमी। ज्ञानी ध्यान को अपनी नाव बनाता है और प्रेमी प्रार्थना को। ध्यान भी एक मार्ग है और प्रार्थना भी एक मार्ग है। ध्यान अलग ढंग की नौका है और प्रार्थना अलग ढंग की। ध्यानी भी पार लगता है और प्रेमी भी। महावीर और बुद्ध जैसे लोग ध्यान से पार लगे, यीशू Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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