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________________ 114 अन्तर के पट खोल और मीरा जैसे लोग प्रेम के मार्ग से। प्रार्थना का अर्थ ही प्रेम होता है। वह प्रार्थना केवल शब्द-जाल है, जो प्रेम और समर्पण से रहित है। परमात्मा छंदों एवं अलंकारों से भरी कविताओं से नहीं रीझते। उनकी पसंदगी तो हृदय का प्रेम है। प्रेम परमात्मा का प्रकाश है। प्रेम परमात्मा तक पहुँचने का पगथिया (सोपान) है। गूंगा प्रार्थना बोल नहीं सकता, लेकिन वह प्रार्थना कर सकता है। बोलना यदि प्रेमपूर्वक हो, तो वे बोल केवल वाक्-पटु प्रार्थना नहीं रह जाते, बल्कि वे परमात्मा की आँखों की पुतली बन जाते हैं। प्रेम भी मार्ग है, ध्यान भी मार्ग है। सच तो यह है कि ध्यान प्रेम से अलग नहीं है और प्रेम ध्यान से जुदा नहीं है। ध्यान का अंतर्व्यक्तित्व प्रेम बन जाता है और प्रेम ध्यान का बुर्का पहन लेता है। इसलिए ध्यान प्रेम है और प्रेम ध्यान। ध्यान और प्रेम जीवन के रूपांतरण के दो आनंद-सूत्र हैं। ध्यान अपने प्रति, प्रेम जगत् के प्रति। मार्ग चाहे जो अपनाया जाए, मंजिल के करीब पहुँचते-पहुँचते सारे मार्ग एक हो जाते हैं। मार्ग तो आदमी की सुविधा के अनुसार बनाए जाते हैं। आदमी भी भला एक जैसे कहाँ होते हैं? कोई मोटा है तो कोई पतला, कोई लंबा है तो कोई बौना, कोई तार्किक है तो कोई याज्ञिक, कोई पंडित है तो कोई पुजारी। जब आदमी ही एक नहीं है, तो मार्ग एक कैसे होगा? मार्ग अनंत हैं। जिसकी जैसी रुचि हो, वह वैसे ही मार्ग पर अपने कदम बढ़ाए। सारे मार्ग ध्यान के ही रूप हैं। उपासना भी ध्यान है, ज्ञान-स्वाध्याय भी ध्यान है, कर्म और भक्ति भी ध्यान है। अंतराय, चित्तविक्षेप, दु:ख - दौर्मनस्य से मनुष्य को दूर करने के लिए ही ध्यान है। 'तत्प्रतिषेधार्थ एकतत्त्वाभ्यास:'। ध्यान एक तत्त्व का अभ्यास है। जब चित्त की वृत्तियाँ किसी एक ही वत्ति में जाकर विलीन हो जाती हैं- जैसे नदियाँ सागर में समा जाती हैं, तो वृत्तियों के ऊहापोह की मूल अवस्था तिरोहित हो जाती है। एक का स्मरण, एक के अतिरिक्त सबका विस्मरण, यह लक्ष्योन्मुखता ही सत्य की उपलब्धि का मार्ग है। स्वयं को केंद्रित करो किसी एक तत्त्व पर, चाहे वह ईश्वर की उपासना हो,'ॐ' पर ध्यान का केंद्रीकरण हो, वीतराग के आदर्श का पल्लवन हो, या और कोई मार्ग हो। मार्ग तो मात्र मंजिल तक पहुँचने का माध्यम है। मंजिल चित्त की शुद्धावस्था है, मन का मौन है, विकल्पों की उठापटक से मुक्ति है। किस प्रक्रिया से परम अवस्था को उपलब्ध करते हो, यह बात गौण है। यात्रा ही महत्त्वपूर्ण है। चिकित्सा की पद्धति पर अधिक मत उलझो। जिससे स्वस्थ हो सको, वही तुम्हारे लिए श्रेष्ठ है। __ अपने आपको सबसे इतना ऊपर उठा लो कि जमाने का कोई भी दुर्व्यवहार हम पर असर न कर सके। बुरा बुराई कर रहा है, किंतु कहीं हम तो उसके साथ बुरे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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