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ॐ : सार्वभौम मंत्र
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__ 'ओम्' तो परा-ध्वनि है। वह भाषा-जगत् का सूक्ष्म विज्ञान है। 'ॐ' को ही अपनी ध्वनि बनने दो और उसी की प्रतिध्वनि स्वयं पर बरसने दो। 'ॐ' की प्रतिध्वनि जब स्वयं हम पर ही लौटकर आएगी, तो उसकी प्रभावकता केवल कानों से ही नहीं, बल्कि रोम-रोम से हमारे भीतर प्रवेश करेगी। हर रोम कान बन जाएगा और एक ग्राहक की तरह उसे ग्रहण करेगा। कान ग्राहक है। आँख का काम घूरना है, जबकि कान का काम वरण करना। श्रवण का उपयोग करने वाला श्रावक है और महावीर की मनीषा में श्रावक' होना जीवन की पहली आध्यात्मिक क्रांति है।
'ओम्' से बढ़कर श्रवण क्या होगा! बड़ा मधुर है 'ॐ'। 'ॐ' रस है, माधुरी से सराबोर। 'ॐ' का विज्ञान भी मधुर है, किंतु 'ॐ' का अर्थ नहीं निकाला जा सकता। अर्थ तो शब्दों के होते हैं। 'ॐ' को प्रतीक बनाया जा सकता है। उसको कहने और सुनने में डूबा जा सकता है, परंतु अर्थ की सीमाओं में उसे नहीं बाँधा जा सकता। 'ॐ' अर्थों से ऊपर है। वह अर्थातीत है।
इसलिए 'ओम्' में सिर्फ जिया जा सकता है। जो मुँह से और मन से बोलतेबोलते अंतस्तल से बोलने लग जाता है, उसकी चक्र-संधान की यात्रा पूरी हो जाती है। उसका विश्राम तो फिर अनहद में होता है, सहस्रार में, ब्रह्मरंध्र में।
पहले-पहले तो 'ओम्' को बोला जाता है, सुना जाता है, किंतु सिद्धत्व के करीब पहुंचने पर सिर्फ उसकी अनुभूति ही की जाती है। वह अहसास में सुना जाता है। बिना बोले भी सुना जाता है। यह कम दिलचस्प बात नहीं है कि भगवान को देखा नहीं जा सकता, वरन् सुना जा सकता है। भगवान की अभिव्यक्ति 'ॐ' के रूप में होती है। 'ॐ' को देखोगे कैसे ? उसे तो सुनोगे ही। द्रष्टा होने का अर्थ केवल देखना नहीं है। जो दिखाई दे रहा है, उससे हटना है। जब दिखना बंद हो गया, तभी हकीकत में सुनना प्रारंभ हुआ और वह श्रवण तब पुरजोर होता है, जब साधक सातवें चक्र में अपने कदम पाता है। यह पराकाष्ठा है।
'ॐ' से साध्य की खोज प्रारंभ करो। संभव है, पहले हम लड़खड़ाएँगे, तुतलाएँगे, लोग मजाक भी उड़ाएँगे, पर घबराना मत। यदि भयभीत हो गए, तो कैसे दौड़ पाओगे किसी प्रतियोगिता में? कोई माघ या मैक्समूलर कैसे पैदा होगा?
आखिर बीज बोते ही तो बरगद नहीं बनता। माली का काम सींचना है। फल तो तब लगेंगे, जब ऋतु आएगी। ऋतु ज्यादा दूर नहीं है। कोई की ऋतु चेतना के द्वार पर आठ वर्ष की उम्र में भी आ जाती है, तो किसी को अस्सी वर्ष तक भी इंतजार करना पड़ता है। ऋतु तो पर्वत के पीछे खड़ी है। हम उसके पास कब पहुँचते हैं, यह सब-कुछ हमारी तैयारी पर और हमारी संलग्नता और समग्रता पर निर्भर है।
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