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अन्तर के पट खोल
'अल्लाह' बन गया और 'ॐ' के सिर पर दर्शाया जाने वाला रूप इस्लाम का अर्धचंद्र बन गया। इस्लाम में आधे चाँद की बड़ी इबादत और इज्जत है। आधा चाँद 'ॐ' का ऊपर का हिस्सा है। 'ॐ' वहाँ इतना घिस गया कि उसका अर्धचंद्र रूप ही बच पाया। चाँद का आधा रूप इस्लाम का धर्म-प्रतीक है। इस संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि जैन धर्म ने तो निर्वाणधाम का रूप भी अर्धचंद्राकार माना है। वहाँ उसे 'सिद्धशिला' कहा जाता है। सिद्धशिला संसार से ऊपर है। 'ॐ' का अंकित किया जाने वाला चँद्राकार 'ॐ' का ऊर्ध्व-प्रतिष्ठित रूप है। अर्धचंद्र तो सिद्धशिला का द्योतक है और उसके अंदर दिया जाने वाला बिंदु सिद्ध एवं मुक्त आत्माओं का प्रतीक है।
‘गिरह हमारा सुन्न में, अनहद में विश्राम' - शून्य ही सिद्धत्व का घर है। बिना आधार के भी वह घर टिका है। सिद्धशिला को लोकाकाश के ऊपरी और आखिरी छोर पर मानना न केवल शून्य में सिद्धत्व की अभिव्यक्ति है, अपितु अंतरिक्ष और अंतरिक्ष के पार अवस्थिति की स्वीकृति भी है।
घर बने शून्य में और विश्राम हो अनहद में, ओंकारेश्वर में।
'तत: प्रत्यक्चेतना अधिगम: अपि अंतराय-अभावश्च' - पतंजलि'ॐ' को ही वह प्रबल साधन मानते हैं जिससे अंतराय टूटते हैं और चेतना का ज्ञान होता है। अंतराय का अर्थ होता है बाधा। अंतराय तो पर्दा है। चेतना-जगत् के इर्द-गिर्द पता नहीं, कितनी परतें/पर्दे हैं। हर अंतराय चित्र का विक्षेप है। विक्षिप्त मनुष्य अंतर्यात्रा में दिलचस्पी नहीं ले पाता। व्याधि, अकर्मण्यता, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति/
आसक्ति. भ्रांति, लक्ष्य की अप्राप्ति और अस्थिरता- ये सभी प्रमुख अंतराय और चित्त-विक्षेप हैं। 'ॐ' में ऐसी शक्ति एवं क्षमता है कि वह हर बाधा को कमजोर करता है, उसे जीवन-पथ से हटने के लिए मजबूर करता है।
शरीर का रुग्ण रहना स्वाभाविक है, किंतु निरोग होना चमत्कार है। 'ॐ' मनोवैज्ञानिक ध्वन्यात्मक चिकित्सा है। 'ॐ' को यदि हम प्रखरता के साथ आत्मसात् होने दें, तो जैसे शरीर से पसीना बाहर निकल आता है, वैसे ही रोग भी शरीर से दूर हट जाते हैं। शरीर को संयमित रखना और संयमित आहार ग्रहण करना'ॐ' की व्याधिमुक्ति-प्रक्रिया को और अधिक बल देना है। 'ॐ' में थिर होने वाला स्वास्थ्य-लाभ
और अप्रमत्तता तो क्या, आत्म-स्थिरता/स्थितप्रज्ञता को उपलब्ध कर लेता है। 'ॐ' तो अनमोल शब्द है। हीरों के दाम होते हैं, किंतु ॐ' हर मोल से ऊपर है।
सबद बराबर धन नहीं, जो कोई जाने बोल। हीरा तो दामों मिले, सबदहिं मोल न तोल॥
(- कबीर)
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