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________________ अन्तर के पट खोल सरल होकर कि हमारे मन की, अंतरमन की कैसी स्थिति है, कैसी गति-दर्गति है। जीवन के प्रति ईमानदार हुए बगैर जीवन के वास्तविक सत्य और शांति का स्वामी नहीं हुआ जा सकता। दुःखों से मुक्त होने के लिए अन्तर्मन को शांतिमय बनाना पहली अनिवार्यता है। हमारी आँखों के सामने बहुत बड़ा आसमान है और बहुत बड़ा संसार। बीता हुआ एक बहुत बड़ा अतीत है और एक अनसुलझा। अज्ञेय बना एक बहुत बड़ा भविष्य। वर्तमान अतीत और भविष्य के अधर-झूल में है। हम सृष्टि के वर्तमान हैं, पर यह हमारी विडंबना है कि ज्ञान का उपयोग अपने अज्ञान को पहचानने के लिए न कर पाने के कारण ही हम अस्थिर हैं, मन के गलियारे में दिग्भ्रांत हैं। हमारे हाथ में केवल हथेली है; जीवन का सत्य, जीवन की शांति, जीवन का बोध नहीं। मनुष्य का मन बड़ा विचित्र है। वह या तो अतीत की ओर अपने क़दम बढ़ाता है या भविष्य की ओर अपनी पलकें टिमटिमाता है। वह यदि बेखबर है तो केवल वर्तमान से। जो वर्तमान के प्रति सजग है, वही अतीत भविष्य की उठापटक से मुक्त हो सकता है। जीवन का संबंध अतीत में भी रहा है और भविष्य से भी हो सकता है। जहाँ तक जीवन की समग्रता का प्रश्न है, उसकी धुरी तो वर्तमान' है। मेरे देखे, जीवन समय के धरातल पर एक प्रवाह है। एक अविराम-अनिरुद्ध प्रवाह है। मनुष्य की व्याकुलता का कारण अतीत और भविष्य की यादों और कल्पनाओं में खोए रहना है। इसकी बजाय जब भी हम वर्तमान के साक्षी होंगे, हम शांति और निराकुलता के स्वामी होते जाएँगे। काश, मिल जाए हमें वह समझ और जीवन दृष्टि कि जिससे हम हर हाल में शांति और मुक्ति को बरकरार रख सकें। मुक्ति का अर्थ किसी द्वीप पर जाकर बसना नहीं है जो संसार के ऊहापोह भरे सागर से ऊपर हो । मुक्ति मन की मृत्यु है। मुक्ति मन की समाधि है। मुक्ति समय का अतिक्रमण है। जिसका मन मिट गया, शांत हो गया, उस पर समय के कालचक्र का प्रभाव नहीं पड़ता है। ___ व्यक्ति मन से शून्य बने। वह उसे माँजने के चक्कर में न पड़े। वह मन को शांतिमय बनाने के लिए प्रयत्नशील हो। महावीर और बुद्ध जैसे पुरुष मन-मंजन के लिए संसार-मुक्त नहीं हुए, वरन् संसार और संन्यास के जाल बुनने वाले मन से मुक्त होने के लिए साधना-मार्ग पर आरूढ़ हुए। मन भला कोई दर्पण है, जो उसे राख या नींबू से मला जाए? वह तो अदृश्य प्रवाह है। उसमें तरंगे ही तरंगें हैं। वह शरीर की सूक्ष्म संहिता है। व्यक्ति उपरत हो शरीर से भी, मन से भी। यह उच्च अवस्था है। द्रष्टा-भाव/साक्षी-भाव इस स्थिति के पाने का आधार है। ___ हम स्वयं को शांति के मार्ग पर ले चलें। जो स्वयं शांतिमय होता है, वही अपनी ओर से दूसरों को शांति प्रदान कर सकता है। दूसरों को अपनी ओर से शांति, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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