SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शांति का मार्ग : वर्तमान की अनुपश्यना प्रसन्नता और आनंद का सुकून देना परिवार, समाज और मानवता की सेवा ही है। हम दूसरों को शांति और प्रसन्नता देने की बजाय अपने जीवन के अच्छे-बुरे मापदंड का निर्णय उन्हें सुपुर्द कर देते हैं। किसी के द्वारा अच्छे कहे जाने पर हम स्वयं को अच्छा मान लेते हैं, उसके द्वारा किए जाने वाले गुणानुवाद के प्रति हम धन्यवाद से भर जाते हैं, तो बुरा कहे जाने पर स्वयं को बुरा मानते हुए उसके प्रति आक्रोश और उपेक्षा-भाव दृढ़ कर लेते हैं । कोई हमें बुरा कहे, यह कहने वाले की मज़बूरी रही होगी। उसकी मज़बूरी को हम अपनी मज़बूरी क्यों बनाएँ । कोई हमें अच्छा कहता है, यह उसकी भलमनसाहत होगी। उसके द्वारा भला कहे जाने पर हम स्वयं को क्यों अभिमान दें। 11 किसी के द्वारा अच्छा-बुरा कहा जाना यह उसकी अच्छी-बुरी दृष्टि का परिणाम है। हम किसी के द्वारा कुछ कहे जाने से वैसा थोड़े ही होते हैं, फिर व्यर्थ की राग- -द्वेषजनित प्रतिक्रियाएँ क्यों ? हम वास्तव में अच्छे हैं या बुरे, इसके तो हम स्वयं ही ज्ञाता हैं। दूसरों के बातूनी सम्मोहन में स्वयं का विवेक छोड़ देना स्वयं की वास्तविकता से धोखा खा बैठना है । स्वयं की वास्तविकता के लिए हमें स्वयं का जायजा लेना होगा । ढुलमुल यकीन काम न आएगा। जो है, वही है; जैसा है, अपनी वास्तविकता में है। अध्यात्म स्वयं की वास्तविकताओं से साक्षात्कार है। 1 हम पहल करें अंतर - निरीक्षण की, मन को शांतिमय बनाने की । हम अपने जीवन को पढ़ें, निहारें। जीवन की असलियत खुद-ब-खुद सामने नजर आ जाएगी। मुझे सुनकर जगने वाली प्यास आरोपित है। असली प्यास जगती है स्वयं को सुननेपढ़ने से । हम सुनें, पढ़ें स्वयं को, अपने आपको, ताकि यात्रा शुरू हो सके अपनी ही अभीप्सा के साथ, जीवन के अंतर् - स्त्रोत को ढूंढ़ने की । इंद्रियजीवी होने के कारण शायद जीवन का सत्य बाहर ढूँढ़ते रहें, किंतु जब लौटकर स्वयं में झांकेंगे, तो सत्य और शांति का स्रोत स्वयं में ही रुँधा-दबा पाएँगे। बाहर ढूँढ़ना मन की बहिर्यात्रा है, वहीं भीतर निहारना अंतर्यात्रा है । यह सीमा में असीम की, काया में कायनात की कोशिश है। यथार्थ यह है कि जीवन के स्रोत स्वयं में हैं। माना कि इसके संबंध अतीत से भी रहे हैं, अभी भी हैं। जो 'है' उसके 'था' पर विचार न करें। अतीत पर विचार करते रहना केवल मन के अनर्गल जंगल में घूमने के समान है। जीवन का आनंद 'है' में होने में है, बाकी तो सब ' सूने घर के पाहुने' हैं । यह सही है कि धरती पर हमारे पाँव हैं। धरती और ब्रह्मांड की विराटता हमारे सामने 'खुली हथेली' की तरह फैली हुई है । विराटता और उसकी बारीकियों को देखने के लिए हमारे भीतर अन्तर्दृष्टि चाहिए । दृष्टि जितनी प्रगाढ़ होगी, विराटता हमारे उतनी ही क़रीब होती जाएगी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy