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है। शरीर तो आज भी मृत है। जीवित तत्त्व के साहचर्य के कारण यह मरणधर्मा शरीर भी जीवित दिखाई देता है। जिनके पास आँखें नहीं हैं वे ही कहते हैं वह मर गया।' जिनके पास जीवन-दृष्टि हो उनके लिए मृत्यु केवल जीवन का परिवर्तन है। पुरानी काया का छूटना और नई काया का धारण करना है। जीवन-तत्त्व की मृत्यु नहीं हो सकती। जीवन तो एक बार नहीं सौ-सौ बार चिता पर जला दिया जाये तब भी वह तो अखण्ड, अच्छेद्य, अभेद्य रहेगा। उसे आग क्या जलायेगी? जो स्वयं आग को अस्तित्व देता है, पानी उसे क्या डूबा पायेगा जिसके कारण पानी स्वयं अस्तित्व पाता है गीता कहती है:
नैनं छिंदंति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ॥ जीवन के प्रति तो वह दृष्टि चाहिये जो जीवित और मृत दोनों को साफ-साफ देख और समझ सके। मृत्यु क्या है, मृत्यु किसकी होनी है, यह बात हमारे ध्यान में होनी चाहिये। मृत्यु से केवल काया गिर पायेगी। जीवन तत्त्व के लिए तो काया बिल्कुल ऐसे ही है जैसे सर्प के लिए कैंचुली हुआ करती है। आखिर फल के पक जाने से उसे पेड़ से उतरना ही होगा। पत्ते के पीले हो जाने से उसे झड़ना ही होगा। मृत्यु तो ऐसे है जैसे हवा का झोंका आये और पेड़ पर अटका पीला पत्ता उस हवा के झोंके के साथ हवा में तैरता हुआ ज़मीन पर आ गिरे।
जो मुक्ति को जीता है उसके लिए तो काया कल ही क्यों, आज ही गिर जाये। जिसके पास जीवन की तैयारी नहीं होती वे ही सोचते हैं कि इस बूढ़ी काया को और घसीटा जाये। काया से काया को और जिया जाये। अब इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि काया शुक्रवार को गिरे या मंगलवार को, सूरज पूर्णिमा को अस्त हो या अमावस को?
तो आदमी किसी के मर जाने के बाद उसकी फोटो पर फूलमालाएँ चढ़ाता है, उसकी स्मृति में दान और प्रार्थनाएँ करता है। पर स्वयं वह इस बात को अहसास क्यों नहीं करता कि आने वाले कल में उसका शरीर भी गिर जायेगा। जिस शरीर की तृष्णा और वितृष्णा के पीछे वह अपना जीवन
९० / ध्यान का विज्ञान
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