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________________ एक सौदागर गंगा में स्नान करते हुए मन में कल्पनाओं के स्वप्न संजो रहा था। मेरे पास जो माल है मैं उसे बेचकर उससे चार गुना कमाऊँगा। चार गुने धन से माल खरीदकर आठ गुना कमाऊँगा। धन से धन बढ़ता जायेगा। मैं बहुत बड़ा अमीर बन जाऊँगा। अपने लिए सात-सात महल बनाऊँगा और सात-सात सुंदरियों से निकाह करूँगा। नदी किनारे खड़े एक संत ने युवक की मनःस्थिति को पढ़ा। संत ने कहा, 'भले मानुस तू यह सब तो तब करेगा जब सात दिन से ज़्यादा जी पायेगा।' सौदागर संत की बात सुनकर चकित हुआ। पूछा, 'क्या मतलब?' संत ने कहा, 'मैं सातवें दिन तो तुम्हारी मृत्यु देख रहा हूँ।' सौदागर संत की बात सुनकर बेहोश होकर गिर पड़ा। संत ने उसके चेहरे पर पानी के छींटे दिये। जैसे-तैसे वह होश में आया। उसका हृदय रो पड़ा। संत ने कहा, 'मित्र, जीवन की कभी मृत्यु नहीं होती। मृत्यु केवल हमारे सपनों को तोड़ सकती है। तुम अपने झूठे सपनों से स्वयं को बाहर लाओ और अपनी मन की शांति के साथ अपनी मुक्ति के इंतज़ाम में लग जाओ।' संत ने उसको मुक्ति का पाठ पढ़ाया। उसे संबोधि अर्जित हुई। सातवें दिन मृत्यु अवश्य आई, पर उसकी मृत्यु हो उससे पहले उसका निर्वाण हो गया। उसकी देह गिर गयी, पर वह अरिहंत हो गया। हमारी मृत्यु ऐसी मृत्यु हो कि वह निर्वाण का महामहोत्सव हो जाये। हमारे लिए मृत्यु पीड़ा या बेचैनी नहीं हो, वरन् काया का गिरना भर हो। मृत्यु का बोध इसलिए है ताकि हम मुक्ति का पाठ पढ़ सकें। मृत्यु के बोध का यह अर्थ नहीं कि हमें मृत्यु का भय हो। भय को कोई भी रास्ता हमें मुक्ति की ओर नहीं ले जा सकता है। भय मनुष्य के लिए आत्मघातक है। मुक्ति का मार्ग निर्भयता से प्राप्त होता है। मृत्यु के भय से मुक्त होकर ही व्यक्ति मुक्ति को जी सकता है। मृत्यु से कैसा डर! मृत्यु तो काया की होनी है। हम थोड़े ही मर जायेंगे। जो आज जीवित है वह मृत्यु के दौर से गुजरने के बाद भी जीवित ही रहेगा। जिसे तुम किसी को मृत्यु के बाद मृत घोषित करोगे, वह तो आज भी मृत है। मृत्यु तो केवल मृत और जीवित के बीच रहने वाले संयोग को तोड़ देता है। दो तत्त्वों के बीच होने वाले संयोग का टूटना ही मृत्यु मुक्ति का पाठ : मृत्यु-बोध / ८९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003865
Book TitleDhyan ka Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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