________________
जीते-जी हमें मृत्यु का बोध हो जाये, मृत्यु का अहसास हो जाये तो दुनिया की आधी आपाधापी ऐसे ही मिट जाये । आदमी की यह मुश्किल है कि उसे यह कभी दिखाई ही नहीं देता कि उसकी भी मृत्यु होनी है । किसी और को मरता देखकर अगर उसे यह किंचित् भी लग जाये कि उसे भी इसी दौर से गुजरना है तो वह न तो स्वार्थखोरी में उलझे, न हिंसा - प्रतिहिंसा में रस ले और न ही संग्रह - परिग्रह की साँठ-गाँठ बैठाये ।
किसी युवक ने संत से पूछा, 'क्या आपको तृष्णा और वासना नही सताती ?' संत ने कहा, 'नहीं।' पूछा, 'क्यों?' संत ने कहा, 'मैं तुम्हें इस बात का जवाब दूँ इससे पहले तू यह जान ले कि पाँच दिन बाद तेरी मृत्यु होने वाली है ।' युवक चौंका अपनी मृत्यु की बात सुनकर । संत ने कहा, 'सवाल-ज़वाब तो छोड़ । संसार की सरपच्ची बहुत हो गयी। मौत द्वार पर आयी खड़ी है। भगवान को भज और जो अपने कल्याण को चाहता है वह कर । '
युवक की स्थिति बड़ी विचित्र हो उठी थी । वह अपने घर गया और बड़े उत्कट भाव से भगवान की भक्ति में लीन हो गया। जब पाँच दिन गुजर गये तो उसने पाया कि संत उसके घर पर आये हुए हैं। संत ने उससे पूछा 'कहो वत्स, पिछले पाँच दिन कैसे बीते ?' युवक ने कहा, 'जब मौत द्वार पर आयी हुई हो तो आदमी को सिवाय भगवान के और कुछ याद भी नहीं आता।' संत ने कहा, 'तुमने मुझसे पूछा था कि आपको तृष्णा और वासना क्यों नहीं सताती ? जिसे सदा मृत्यु की पदचाप सुनायी देती हो, उसे भगवान की याद भी क्या आयेगी ? उससे तृष्णा और वासना तो वैसे ही दूर रहती है जैसे मृत्यु से कोई आदमी दूर रहना चाहता है । '
मृत्यु का बोध हमें बिना साधना ही मुक्ति की रोशनी दिये रहता है । मृत्यु तो जीवन का शाश्वत नियम है। शाश्वत का अर्थ है जिसमें कोई उलटफेर नहीं किया जा सकता । मृत्यु तो हमारी जीवन-यात्रा का आखिरी पड़ाव है। उससे बचा भी नहीं जा सकता है । पर भगवान करे कि हम सबकी मृत्यु हो, उससे पहले मुक्ति हो जाये । हम राख हों, उससे पहले निर्वाण को प्राप्त हो जाएँ ।
८८ / ध्यान का विज्ञान
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org