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मुक्ति का पाठ : मृत्यु-बोध
हमारी साधना मुक्ति की ओर बढ़ती तीर्थयात्रा है। मनुष्य की मंज़िल मृत्यु नहीं, वरन मुक्ति है। मृत्यु जीवन की समाप्ति है, जबकि मुक्ति मर्त्य में अमृत की, मृण्मय में चिन्मय की खोज है। मुक्ति तो मृत्यु भी तुम्हें देती है, पर मृत्यु जिससे मुक्ति देती है वह देह भर होती है। मृत्यु तुम्हें देह से मुक्ति दे सकती है, लेकिन तुम्हें मुक्त नहीं कर सकती। मुक्ति न तो देह को मारती है, न तुम्हें। मुक्ति का अर्थ हुआ कि देह तो देह के रूप में ही रही। तुम देह में रहते हुए भी देह से अलग हो गये। मुक्ति हमारी मृत्यु नहीं है वरन हमसे रहने वाले जीवन-तत्त्व की उपलब्धि है।
जिसे आम भाषा में मृत्यु कहते हैं, उस मृत्यु से गुजर कर हमारी केवल मिट्टी ही पलीत होनी है। जीवन की राख ही होनी है। पर अगर
मुक्ति का पाठ : मृत्यु-बोध / ८७
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