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अस्तित्व के अंतर-मौन से एकाकार होते जाते हैं, वैसे-वैसे बाँस का बोध विलीन होता जाता है। तब हमारी स्थिति चेतना की प्रकाशमयी स्थिति होती है, तब हम अस्तित्व के साथ एकाकार होते हैं और परमात्मा हमारे साथ।
हम स्वयं को परिधि से केन्द्र की ओर लाएँ। क्रिया में रचने-बसने की बजाय सत्ता के आसन पर अपनी बैठक लगायें। हमारी ओर से जो कुछ भी हो, हमारे प्रति जो कुछ भी हो, हमारी सजगता और प्रसन्नता में बिखराव नहीं आना चाहिये। हम काँटों के बीच भी खिले हुए रहें। ऐसा नहीं कि क्रियाएँ नहीं होंगी। क्रियाएँ तो होंगी ही, पर हमारी ओर से हर क्रिया के प्रति निरपेक्ष मुस्कान भर होगी, न किसी का गिला, न किसी का अभिमान।
___ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर। अपना राम तो अपने में मस्त। किसी ने हमें उकसाने की कोशिश की तो भी हमारी ओर से उसके लिए मुस्कान भर हो। किसी ने क्रोध और आवेश में गाली भी निकाली तो भी हमारी ओर से मुस्कान ही होगी। हमारी मुस्कान से चाहे कोई चिढ़े या पिघले, उसकी वो जाने; मैं तो इतना-सा ही कहँगा कि ध्यान से अपने आपको देखो और जरा मुस्कान दो। मस्कान ही हमारी ओर से औरों को मिलने वाला उपहार हो जाये। प्रिय-अप्रिय, मान-अपमान, हानि-लाभ, हमारी ओर से हर स्थिति के प्रति मुस्कान-ही मुस्कान । इससे अंतरमन प्रतिक्रियाओं के जंजाल से छूटेगा, अंतरमन में शांति
और स्वच्छता घटित होगी और भीतर में प्रसन्नता का सर्वोदय होगा। अंतरमन में स्वच्छता, अंतरमन की शांति और हर हाल में मस्ती-चेतना की प्रकाशमयी स्थिति को जीने का यह आधार सूत्र है। यह सूत्र ही आत्म-मुक्ति का राज मार्ग है।
आज साँझ को ही सही हम चेतना की इस गहराई में उतरें। शरीर के प्रति बाँस की पोली पोंगरी की तरह सहज हो जायें। शिथिल मन किन्तु सजग चेतना के साथ स्वयं के अंतरमौन को, अंतरशन्य को, अंतर-अस्तित्व को निहारें, आप अपने आपको दिव्य ऊर्जा से भरा हुआ पाएँगे, अपने आप में एक नये जीवन को प्रवेश होता हुआ देखेंगे। एक ऐसे जीवन को जिसे हम मुक्ति का जीवन कहते हैं, बोधि-लाभ और ब्रह्म-विहार कहते हैं।
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८६ / ध्यान का विज्ञान
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