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की बजाय सजगता के साथ इससे मित्रता रखें। देहभाव से मुक्त होने का अर्थ यह नहीं कि हम देह की उपेक्षा करें, उसे सताएँ, उसके प्रति दुश्मनी रखें। देह और मन दोनों के प्रति सजगता लाएँ, उनके प्रति तटस्थता और निरपेक्षता लायें।
देह तो बाँस की पोली पोंगरी है। दीखने में हाड़, मांस, रुधिर, वीर्य पर जैसे बाँस की पोंगरी भीतर से बिल्कुल खाली होती है, हमारी देह ऐसे ही रिक्त है। हम दस मिनट के लिए देह को निढाल छोड़ दें। तन-मन में विश्राम लाएँ और शांत मन के साथ यह अनुभव करें कि हम एक बाँस की पोंगरी की तरह हो गये हैं। शरीर बाँस की पोंगरी है। हड्डी-मांस ये सब बाँस के ही हिस्से हैं। जैसे ही हम अपनी देह को बाँस की पोंगरी की तरह देखेंगे आप आश्चर्य करेंगे कि हमें अपनी देह में एक परम शांत ऊर्जस्वित, स्वयं में शून्य को साकार होता हुआ पायेंगे। ज़रूरी है कि हमारा मन शिथिल हो जाना चाहिए।
हम जैसे शवासन में शिथिलीकरण का सुझाव देते हैं ऐसे ही मन को भी शिथिल करें मन के शिथिलीकरण के लिए सुझाव दें - मन शांत, विचार शांत, सोचो मत; सोचने जैसा कुछ नहीं है; जागो, जाग रहा हूँ, शून्य हो रहा हूँ; साक्षी हूँ, द्रष्टा हूँ आदि। जब हम शिथिल मन होकर, शांत मन होकर, शरीर को बाँस की पोंगरी का अनुभव करेंगे तो आप पायेंगे कि आप इस समय समाधि के करीब हुए। आपके अंत:करण में शून्यता
और दिव्यता का उदय हुआ। ऐसी स्थिति में बाँस-बाँस नहीं रहता, बाँस भी बाँसुरी हो जाता है और आपके अंतरघट में रहने वाला अंतर्यामी भगवान उसे बजाने लग जाता है।
हमें एक बार शून्य में उतरने की पगडंडी हाथ लग जाती है तो हम सबके साथ जीते हुए भी निस्पृह बने रहते हैं। हमारे सामने विकार के निमित्त उपस्थित हो जाने के बावजूद हम निर्विकार बने रहते हैं। देह के द्वार पर मृत्यु की ओर से दस्तक दे दिये जाने के बावजूद हम अपने आप में अविनाशी बने रहते हैं।
शुरू-शुरू में तो हम स्वयं को बाँस की पोंगरी की तरह देखते हैं, अनुभव करते हैं, लेकिन जैसे-जैसे शून्य से हमारा सरोकार होता जाता है
शून्य में शाश्वत के दर्शन / ८५
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