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से जगना ही, जीवन में आध्यामिक मूल्यों का उदय है। चेतन की प्रकाशमयी आनंद-दशा की ओर आँख का खुलना है। हम जो कुछ कर रहे हैं, आखिर यह तो ज्ञात रहना चाहिए कि क्यों कर रहे हैं? निद्रा और मूर्छाचारिता में जो कुछ करेंगे, उससे हमारा तमस् और प्रगाढ़ होगा।
सजग दशा के साथ जो कुछ करेंगे उससे तमस् का, अंधकार का कोहरा छंटेगा। आत्म-जागृत व्यक्ति अगर विषय का भी सेवन कर लेगा तो उससे तमस् में कटौती ही होनी है। कहते हैं महावीर ने विवाह किया। संभव है इसके पीछे उनके माता-पिता की इच्छा रही हो, किन्तु महावीर के संतान भी हुई। महावीर आत्मचेता पुरुष थे। उनके द्वारा किया गया सेवन भी प्रकाश की ओर उठाया गया कदम था। महावीर का यह ऐसा कदम भी जिससे अतीत की संस्कार-धारा टूटे। भीतर में कहीं गहरे में समाया अंधकार बाहर विसर्जित हो जाये।
हम प्रकाश के निर्विकार पथ की ओर बढ़े और बीच मार्ग में विकार की कोई कारा हमें लपकने की कोशिश करे उससे तो बेहतर यह है कि हम अपने भीतर के तमस् को पहले ही समझ लें। भीतर का तमस् पहले ही बाहर उलीच आएँ । विकार बाद में उन्हीं को परेशान करते हैं, जो निर्विकार पथ में बढ़ने से पहले विकार-मुक्त नहीं हुए है। नतीज़ा यह होगा कि ऐसी स्थिति में भले ही व्यक्ति अपने अंतर-मौन की ओर बढ़ जाये, लेकिन जैसे ही वह सूक्ष्म में स्थूल की ओर लौटकर आयेगा, तमस् उसे विविध रूपों में परास्त करने की कोशिश करेगा। तमस् की समझ ही तमस् से मुक्त होने का उपाय है। जिसने देह के वास्तविक स्वरूप को पहचान लिया वह देहधर्मी होकर विचारों में नहीं उलझेगा। वह तो सदा इस बात को जानने के लिए उत्सुक होगा कि देखू देह के पार क्या है? वह मन के मकड़जाल
और माया-जाल में नहीं उलझेगा। वह इस बात के लिए उत्सुक होगा कि मन के सोच-विचार, मन के संकल्प-विकल्प, मन के कोलाहल के पार क्या है। उसकी जिज्ञासा चेतना की ओर उन्मुख होगी, उस सत्य की ओर जो जीवन की असलियत है जो अजर और अमर है, जो ज्ञान, दर्शन और आनन्द की अखण्डता को अपने में समाहित किये हुए है।
बेहतर होगा हम इस शरीर के प्रति सहज और सजग हों। निद्राचारिता
८४ / ध्यान का विज्ञान
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