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है। क्रिया ही क्रिया को प्रभावित करती है। क्रियाएँ चाहे जितनी भी हों, हमारे अंतरतम का केन्द्र उस हर क्रिया से अलिप्त खड़ा रहता है। झंझावात चाहे जैसा उठे मगर सागर का तल उससे प्रभावित नहीं हो सकता।
सभी उथल-पुथल ऊपर-ऊपर है। क्रोध है तो क्रोध और काम है तो काम, हर क्रिया परिधि पर चल रही है। मनुष्य का अंतरतम-केन्द्र शून्य ही रहता है, मौन ही रहता है। कितनों के साथ रहने के बावजूद उसकी एकात्मकता को कोई ख़तरा नहीं पहुँचता। जो साहचर्य होता है वह मन
और देह का ही होता है। हमारा अंतरतम तो निस्पृह ही बना रहता है। माँ की कोख से जन्म लेने के कारण न तो उसे जन्मधर्मा कहा जा सकता है और न ही देह के गिर जाने से उसे मरणधर्मा । हम अपने बोध में अलिप्त रह सकें या नहीं, वह तो अलिप्त ही रहता है।
मनुष्य तब तक बोध के साथ अलिप्त नहीं रह पाता जब तक वह उस शून्य का स्वामी नहीं हो जाता। शून्य के साथ न लगने के कारण जीवन में तमस् का प्रभाव चलता है, प्रकाश का अभाव बना हुआ रहता है। अंधकार वास्तव में प्रकाश के अभाव का ही नाम है। जिसे मैं शन्य और मौन कह रहा हूँ वह वास्तव में हमारी चेतनामयी दशा है, आत्ममुक्ति को जीने की दशा है। चेतना प्रकाशमयी है यानी एक ऐसा प्रकाश जहाँ अंधकार नहीं है। स्वयं की निर्विकार स्थिति ही चेतना की प्रकाशमयी स्थिति है। जब मैं प्रकाश कह रहा हूँ तो इसका अर्थ यह नहीं कि यह प्रकाश कोई सूरज जैसा, चाँद जैसा या दीपक की रोशनी जैसा होगा। जिसे अंधकार कह रहा हूँ वह अंधकार कोई ऐसा नहीं जिसे तुम सूरज के डूब जाने पर रात को देखा करते हो। यह तो अंधकार और प्रकाश का स्थूल रूप है। अंधकार से मेरा मलतब है मूर्छा से, विकार और वासना से। यह सब मनुष्य की निद्राचारिता है। निद्राचारिता यानी तुम जो कुछ किये जा रहे हो वह सब नींद में ही किये जा रहे हो। तुम अभी क्या सोच रहे हो, क्या चाह रहे हो, क्या कर रहे हो, स्वयं तुम्हें भी पता नहीं है। हम सोच रहे हैं पर क्यों सोच रहे हैं, हमें यह ज्ञात नहीं है। कई चीजें हम ऐसी कर रहे हैं यह न जानते हुए कि क्यों? बस एक अचेतन नींद में बहे जा रहे हैं। इस नींद से जागना ही अध्यात्म की ओर कदम बढ़ना है। इस नींद
शून्य में शाश्वत के दर्शन / ८३
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