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बालशेम जिस रास्ते से नदी-तट की ओर जाते, उसी रास्ते पर किसी अमीर आदमी का महल पड़ता। महल के बाहर खड़ा पहरेदार बालशेम को रोज नदी से आधी रात को लौटते हुए देखता। वह चौंकता बालशेम को देखकर। उसके मन में प्रश्न उठता कि यह आदमी आधी रात को ही नदी-तट की ओर से क्यों लौटता है, वह नदी-तट पर क्या करता है ? छानबीन करनी चाहिये। एक शाम उसने बालशेम का पीछा किया। उसने बालशेम को घंटों नदी किनारे बैठे देखा। बालशेम ने कुछ और नहीं किया। आधी रात हुई, वह नदी किनारे से लौटने लगा। पहरेदार ने कई दिन तक उसका पीछा किया, लेकिन उसने हर बार यही पाया कि वह नदी किनारे केवल बैठता है और कुछ नहीं करता।
आखिर एक दिन पहरेदार ने संत बालशेम को रोका और पूछा, 'न जाने तुममें ऐसी क्या ख़ासियत है कि तुम्हारा यह मौन मुस्कराता चेहरा सदा मुझे उद्वेलित और अभीप्सित करता है। आज सोचा, तुमसे बात कर ही ली जाये, उसने पूछा, 'तुम्हारा मकान कहाँ है?' संत बालशेम मुस्कराये। बालशेम कुछ बोले उससे पहले ही पहरेदार ने एक प्रश्न और पूछ लिया आखिर तुम कौन हो? काम क्या करते हो? बालशेम ने कहा, 'मुझे पता है कि तुम रोज मुझे इस रास्ते से आते-जाते देखा करते हो। मैं वही काम करता हूँ जो तुम करते हो।' पूछा, 'मतलब'? बालशेम ने कहा, 'पहरेदारी'। यह सुनकर वह पहरेदार तो और चौंका बालशेम ने कहा कि तुम महल के बाहर पहरा देते हो और मैं महल के अन्दर । तुम्हारा महल यह बँगला है और मेरा महल मैं ही हूँ। तुम औरों के लिए पहरा देते हो और मैं अपने लिए। तुम औरों पर नज़र रखते हो और मैं अपने पर। पहरेदार ने कहा मैं तुम्हारी बात नहीं समझ पाया। मुझे पहरेदारी के लिए पैसा मिलता है, तुम्हें तुम्हारी पहरेदारी से क्या मिलता है?, बालशेम मस्कराए और कहने लगे, 'मित्र तुम्हारा पैसा तो महीने में खर्च हो जाता है। मुझे इस पहरेदारी के बदले में जो रुपया हाथ लगता है वह पृथ्वी की हर संपदा से ज्यादा मूल्यवान है। यह एक ऐसी संपदा है जिसमें जितना डूबो उतना ही गुणादुगुणा होती है, दुगुनी-चौगुनी बढ़ती है।'
पहरेदार बालशेम के प्राणवंत शब्दों से इतना आंदोलित और अभिभूत
८० / ध्यान का विज्ञान
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