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खोल लें। अपने भीतर अत्यन्त सजगता से सविस्तार देखें । तुम्हें अपने भीतर, स्थूल शरीर के भीतर तुम एक रिक्तता का अनुभव करोगे । प्राणधारा का प्रवाह अनुभव करोगे। जो रिक्तता है वह आकाश है और जो प्राणधारा है वह तुम्हारी स्व-सत्ता की चैतन्य - ऊर्जा है । शरीर के अंतर-भाग को देखने के बाद अपने हृदय के भाग में लौट आओ और वहाँ अंतस् आकाश को खोजो। तुम अपने हृदय और मस्तिष्क को इतना शांत और शून्य देखो जितना कि मेघ - रहित आकाश हो, यातायात - रहित मार्ग हो । अंतस् का आकाश, अंतस् की शून्यता में तुम्हारा प्रवेश हो गया तो विचार और विकल्प स्वतः विलीन हो गये । मन गिर ही चुका, तुम निर्विकल्प हुए, तुम आत्म-स्वरूप को, आत्म-भाव को, अंतर - मौन को उपलब्ध हुए ।
काया मुरली बाँस की, भीतर है आकाश । उतरें अंतर - शून्य में, थिरके उर में रास ॥
यह काया तो बाँस की मुरली की तरह है। मुरली में समायी जो रिक्तता है, जो खालीपन है, वही तो आकाश है । उस रिक्तता में उतरना उस अंतर्शून्यता को पहचानना ही जीवन में संगीत को जन्म देना है। हर मुरली में संगीत की सुवास है, संगीत का सामर्थ्य है । हम अपने में उतरें, अपने को जानें।
संत बालशेम की कहानी है। कहानी क्या है साधना के कुछ सूत्र उसमें समाये हैं। कहते हैं, बालशेम प्रतिदिन नदी पर जाते और आधी रात को वापस लौट आते । कुछ न करते, बस बैठते थे, नदिया के किनारे वे लहरों को देखते, एकटक देखते रहते बग़ैर पलकें झुकाये मानो लहरों का त्राटक कर रहे हों। यह उनकी बैठक का, ध्यान का पहला चरण होता था। लहरों को देखने में वे पाते कि उनकी चित्त की चंचलता खो चुकी है । उनका चित्त स्थिर और मौन हुआ है। उनकी पलकें स्वतः झुक जातीं और तब वे अपने भीतर शांत, मौन, स्थिर, स्व को देखते रहते, देखने का आनन्द लेते। यह वास्तव में आत्म-दर्शन का आनन्द था, आत्म-उत्सव का आनन्द था। डूबे रहते वे अंतस के आकाश में, अंतर- गुहा की रोशनी में। नदियों को देखना और स्वयं को देखना यही उनकी ध्यान -पद्धति थी, यही उनकी साधना थी, और एक गहरे अर्थ में उनकी तो यही कमाई थी।
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में समग्रता की खोज / ७९
शून्य
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