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हुए आनंदित रहना, आत्मस्थ रहना यही सच्चिदानंद है। स्थिर चित्त और स्थिरप्रज्ञ रहने का यही सूत्र है।
चित्त में तरंगे उठती हैं, संसार की ओर प्रवृत्ति भी होती है, किन्तु यह सब करते हुए भी हमें दोनों के प्रति सजग रहना चाहिए। सजगता यानी एक ऐसी स्थिति कि हम सर्व के साक्षी भर हो जाएँ। सम्भव है हवा के झोंके से जीवन के सरोवर में लहरों की चंचलता उठ आये। लेकिन हमें यह स्पष्ट बोध रहना चाहिए कि सारी अशांति और चंचलता परिधि पर हो रही है।
और जैसे ही हमें इस बात का अहसास होगा कि यह कंपन, तरंगायन परिधि पर ही हुआ है, मुझ में नहीं। आप स्वयं को तत्क्षण शांत होता हुआ पायेंगे। ऐसा होने से परिधि भी शांत हो जायेगी और केन्द्र पर भी शांति की सुवास रहेगी। परिस्थिति चाहे जैसी सामने आये, मन चाहे जिस दौर से गुजर पड़े मगर साक्षी, साक्षी रहे। साक्षी शांत रहे, साक्षी सजग रहे।
मान लीजिये, क्रोध पैदा हुआ। आप न तो क्रोध का दमन कीजिए और न ही प्रकट। आप यह जानें कि क्रोध परिधि पर है। स्वयं को इस से अलग देखें। आप पायेंगे कि यह प्रयोग बड़ा सार्थक रहा। क्रोध के प्रति साक्षित्व लाते हए न केवल क्रोध विलीन हो जाता है, वरन क्रोध की तरंग शांति की ऊर्जा बन जाती है। साक्षित्व के केन्द्र में रूपान्तरण की अद्भुत शक्ति है। हम जो भी चीज हैं उससे अलग हटकर उसे देखें। आप पाएँगे कि केवल परिधि ही काँप रही थी, मैं तो अब भी वैसा ही शांत हँ जैसा शांति के क्षणों में रहा।
बेहतर होगा क्यों न हम हर परिस्थिति या उठापटक को नियति का खेल ही समझ लें। यह विश्वास हृदय में स्थापित कर लें कि जो हो रहा है, या जो हुआ है, वह होनहार ही रहा है। मैं होनी में हस्तक्षेप नहीं करूंगा। हृदय में स्वीकार किया गया यह सूत्र न केवल हमें शांत रहने का अवसर देगा वरन् हमारी शांति को अखण्ड और अनवरत बनाये रखेगा। हमारी तो चित्त के प्रति केवल शांत-मौन-सजगता रहे, 'मैं हूँ' का बोध बरकरार रहे। 'मैं' मर्छित न हो जाये। 'पर' में प्रसन्नता और 'स्व' में सजगता - हमारी स्थिति उससे बाधित और प्रभावित न हो।
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