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विचारों की सतह पर न हो, बतौर बोध के हो। आत्म-स्मरण और आत्मबोध में विचार-विकल्प की उधेड़बुन होती ही नहीं है। जो होता है वह शांत सरोवर ही होता है। केवल आकाश होता है। शून्य, रिक्त, पूरी तरह ब्लेंक, मगर ऊर्जस्वित, आनंदित। शून्यता का अर्थ सुन्नता नहीं है, कब्र की चुप्पी नहीं है। शून्यता का अर्थ है केवल अस्तित्व की अवस्थिति, एक जागृत मौन, जीव का अखण्ड उत्सव रूप। दिन में जब भी मौका लगे, भीतर झाँकें और देखें 'मैं हूँ'। कोई मानसिक या बौद्धिक दृष्टि से नहीं, वरन बोध की दृष्टि से, जाने कि 'मैं हूँ'।
__हमारी दिक्कत यह है कि हम उसे तो जान रहे हैं जिसे जाना जा रहा है, मगर उसे भूल जाते हैं जो जान रहा है। हमारा ध्यान और बोध केवल ज्ञेय से ही जुड़ा हुआ है। ज्ञाता को न जाने हमने कौन-सी कथरी उढ़ा दी है। यह तो बिल्कुल ऐसी ही बात हुई जैसे कोई कपड़े के चिथड़े में हीरेजवाहरात को बांध कर रख देता है। हमें और तो सब याद रहा अगर कुछ भुलाया हुआ है तो वह स्वयं हम ही हैं; आत्म-विस्मृति ही है।
__ मैंने सुना है : किसी आदमी को भूल जाने की आदत थी। उसकी पत्नी उसकी आदत से परेशान हो उठी। आखिर उसे अपने पति से कहना पड़ा कि अगर तुम इतना ही भूल जाते हो, तो क्यों न कामकाज कागज पर नोट कर लिया करो।
अगले दिन पत्नी ने काम-काज की फ़ेहरिस्त उतार कर पति को पकड़ा दी। पति शाम को खाली हाथ जब घर लौटा तो पत्नी चौंकी। पत्नी ने पूछा, 'क्या सामान नहीं लाये?' पति ने पूछा, 'कौन-सा सामान'? पत्नी ने कहा, 'जो कागज पर लिखकर दिये थे।' पति चौंका, 'आह! वह कागज तो देखना याद ही नहीं आया।'
औरों को भलने के चक्कर में हम उस कागज को भी भूल बैठे, जिस पर काम करने की सूची बनायी थी। यह तो सरासर आत्मघाती है। जो याद रखते हैं वह और तो सब याद रख लेते हैं सिवाय स्वयं को छोड़कर। हमें अपना स्मरण रहना चाहिए। आत्म-स्मरण चिर-सुख के लिए, चिर प्रसन्नता के लिए, सच्चिदानंद के लिए है सत्कार्य में ही चित्त को लगाते
७२ / ध्यान का विज्ञान
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