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मैं हूँ, हमें इस बात का हर समय बोध रहना चाहिये। 'मैं' यानी हमारा मूल अस्तित्व। यहाँ 'मैं' का संबंध व्यक्ति के 'अहं' से नहीं है। हमारे अहंकार के विगलित हो जाने पर हमें स्वयं के भीतर जिस आत्मस्थिति का अनुभव होता है 'मैं' का उसी से सम्बन्ध है। यहाँ मैं' से सम्बन्ध स्व-सत्ता से है, 'मैं' का सम्बन्ध आत्म-तत्त्व और जीवन-तत्त्व से है। हम कुछ भी करें लेकिन हमारी ज्ञान-दशा से हमारा 'मैं' नहीं छूटना चाहिए। हम सब कुछ करते हुए भी निज सत्ता से जुड़े रहें। ____राजा जनक को गीता में निस्पृह और अनासक्त की संज्ञा दी गयी है। एक राजा राज्य का संचालन करते हुए भी यदि स्वयं के आत्मस्वरूप का स्मरण बनाये रखता है, आत्मरत रहता है, तो वह राजा रहते हुए भी राजर्षि है। यदि किसी आदमी के हाथ में तेल का कटोरा पकड़ा दिया जाये, कटोरा भी लबालब हो, और यह कहा जाये कि उस कटोरे को हाथ में लेकर नगर के साज-श्रृंगार का निरीक्षण कर आओ, पर शर्त यह है कि कटोरे में से एक बूंद तेल भी गिर पड़े तो उसकी धड़ तलवार से अलग कर दी जायेगी। वह पूरा शहर भी घूम आयेगा, पर उससे पूछो 'तुमने क्या देखा?' जवाब होगा, पूरी यात्रा में मात्र तेल का कटोरा ही।
जिसे तेल के कटोरे का स्मरण रहेगा वह नगर में घूमकर भी आखिर निष्पृह ही तो बना रहा। खास बात यह नहीं है कि तुम क्या कर रहे हो। महत्त्व तो इस बात का है कि कहीं तुम खुद को तो नहीं भूल बैठे। सम्यक्त्व का यही तो ध्येय है कि सब कुछ करते हुए भी 'मैं हूँ' यह बोध और अनुभव बरकरार रहता है। कुंदकुंद ने कहा कि सम्यक् दृष्टि जीव केवल अचेतन ही नहीं, वरन् चेतन पदार्थों का भी उपयोग कर ले तो भी इससे उसे कोई आँच नहीं आती। उल्टे कर्ममुक्ति की साधना ही सधती है। ___आप कुछ भी कीजिए, देखिए, गाइए, बोलिए, स्वाद लीजिए, लेकिन यह बोध बनाये रहिये कि 'मैं हूँ'। अगर ऐसा होता है तो आप अपने मन को बड़ा शांत और सौम्य पाएँगे। मुनित्व की अर्थवत्ता को आप अपने जीवन में चरितार्थ होता हुआ पाएँगे! 'मैं हूँ' के बोध से जुड़कर हम वास्तव में जीवन के शाश्वत रूप से जुड़ रहे हैं, शाश्वत जीवन को जी रहे हैं। 'मैं हूँ' यह हम सोचें नहीं, वरन् इसका अनुभव करें। यह भाव हमारे
आत्म बोध : शांति का सूत्रधार / ७१
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