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और पंतजलि की समाधि का यही विधायक और व्यावहारिक रूप है। बहुत बड़े रशियन संत फ़क़ीर ग्रीशां ने हमेशा प्रार्थना में यही कहा, 'ओ मेरे परम पिता ! तू मुझे प्यार करने वालों का भला कर और मेरे शत्रुओं को माफ
कर ।'
असली करुणा वही है जो हमारे आनंद को खण्डित न होने दे। हम जगत् के सारे दुःखों को अपने हृदय में आमंत्रित करें और अपने हृदय के सुखों को सारे जगत में लौटा दें । दुःख पी लें और आशीष उड़ेल दें। आश्चर्य ! जब हम सारे संसार के दुःखों को अपने भीतर लेते हैं तो वे दुःखी नहीं रहते। हृदय उन्हें रूपांतरित कर देता है । दुःख की धारा हृदय में डूबकर सुख से सराबोर हो जाती है । दुःख-सुख में, आनन्द में बदल जाता है। तब हृदय से जो हिलोर उठती है उसमें आनंद का उत्सव होता है । प्राणों में परमात्मा की प्राणधारा होती है । व्यक्ति अपने जीवन का अनुशास्ता और सम्राट होता है।
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ध्यान का मन्दिर : मनुष्य का हृदय,
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