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प्रेम ही पूजा है; प्रेम ही प्रणाम। प्रेम ही आशीर्वाद है और प्रेम ही वरदान । प्रेम में जहाँ शीरी-फरहाद, हीर-रांझा और लैला-मजनूं की जीवन व्यथाएँ हैं, वहीं नेमि-राजुल का वैराग्य, सीता-राम की मर्यादा, राधा-कृष्ण की रासलीला और मीरा-गिरधर की अंतरलीनता है। तुम प्रेम को जीओ, प्रेम तुम्हें जीयेगा। प्रेम से बढ़कर न कोई सिद्धान्त है, न कोई धर्म। प्रेम से हटकर न कोई शास्त्र है, न परमात्मा का रूप। सत्य तो यह है कि प्रेम ही धर्म का सार है, प्रेम ही जीवन की आत्मा है। बगैर प्रेम का जीवन नीरस और भारभूत है। प्रेम हो हृदय का। प्रेम से बढ़कर कोई पुण्य नहीं। जिस प्रेम में स्वार्थ और पाप है, वह प्रेम नहीं, प्रेम के नाम पर अंकुरित हआ विकार है। मन का प्रेम विकार पर समाप्त होता है और हृदय का प्रेम आत्मभाव में जाकर परिणत और प्रतिष्ठित होता है। मेरे लिए प्रेम जीवन का सार है, इंसानियत की आत्मा है, परमात्मा की पूजा है।
हृदयवान होने के लिए दूसरा सूत्र है- करुणावान बनो। अपने हृदय को करुणा से ओतप्रोत करो। करुणा प्रेम का ही अगला चरण है। प्रेम की अति मानवीय अभिव्यक्ति का नाम ही करुणा है। भगवान बुद्ध करुणा के अवतार रहे हैं। करुणा में जहाँ अरिष्टनेमि का त्याग, शिवि की दया और बुद्ध की कोमलता है, वहीं चंडकौशिक की क्षमा और मदर टेरेसा की सेवा है। कृष्ण की गौ-सेवा और राम का अहिल्या-उद्धार करुणा की ही कोख में हुआ। अशोक का युद्ध-त्याग, लिंकन की जीवदया तथा मेनका गांधी का पर्यावरण-प्रेम हमारी मानवीय भावनाओं में करुणा की ही प्राण प्रतिष्ठा है।
मनुष्य का प्रेम जब लुटने को तैयार हो जाता है, औरों के लिए अपने आप को मिटाने के लिए तैयार हो जाता है, उस समय हृदय जिस भाव से ओतप्रोत है करुणा उसी का नाम है। करुणा ही हृदय की राजमाता हैं, करुणा ही मानवता की मुण्डेर पर मुहब्बत का जलता हुआ चिराग है।
करुणा ही तो वह भाव है जो मनुष्य को मोम की तरह पिघला देती है। जो न पिघले वह इंसान कहाँ, पत्थर की दास्तान है। संत तुलसीदास ने कहा है
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