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मिल न सकूँ फिर इस जीवन में मुझको इतनी दूर हटा दो॥ आशाओं की लता सुखाकर अरमानों के नीड़ जलाकर । बुझ न सके जो इस जीवन में, मन में ऐसी आग जला दो॥ मुझे बनाकर छोड़े पागल, नयन बहाएँ आँसू पल-पल । मेरे उर-अंतर में प्रियतम, ऐसी गहरी टीस बसा दो ॥ अश्रु-हास की माला लेकर, विरह-मिलन के गीत सँजोकर । जहाँ तुम्हें ढूँढें जीवन भर, उस अनंत का पथ बतला दो॥
'मेरे प्राणों में ओ प्रियतम, पीड़ा का संसार बसा दो।' एक ऐसी पीड़ा का संसार, जिसे अभीप्सा कहते हैं, अमृत की अभीप्सा । हृदय में वह अभीप्सा जग गई तो तब तक विश्राम नहीं लेगा, जब तक रस का निर्झर फूट न जाएगा, हृदय हृदयेश्वर से आप्लावित न हो जाएगा। हृदय है ही ऐसा धाम - प्रेम का धाम, शांति, करुणा, भक्ति और आनन्द का धाम। काश, सारा संसार हृदयवान् हो जाए। हृदय की धुरी पर उसका जीवन और जगत् केन्द्रित हो जाए।
आज मानवता के पास मनस्विता और बौद्धिकता का तो बड़ा विस्तार है। अगर कमी आई है, तो केवल इस बात में कि मनुष्य का हृदय से संपर्क टूट गया है। मनुष्य हृदय-हीन हुआ है। उसकी संवेदना हाशिये पर जा बैठी है। हृदयवान व्यक्ति ही जीवन और जगत की उसकी अंतरंगता को जी सकता है। जिसका हृदय मर गया, उसके जीने को क्या तम जीना कहोगे? उसका जीना उसके जीवन पर ही व्यंग्य है। वह इंसान नहीं, चलती-फिरती लाश है।
___ आजकल मनोविज्ञान और उससे संबंधित पहलुओं का विस्तार हुआ है। मनुष्य को मनोविज्ञान समझाया जा रहा है। मनोचिकित्सालय चल रहे हैं, जबकि जीवन का सत्य यह है कि मन स्वयं रोग है। मन और मस्तिष्क से जुड़ी सारी दवाइयाँ केवल उन्हें सुस्त ही करती हैं। हर समय आदमी नींद से खोया रहता है। मैं हर मनोचिकित्सक से कहूँगा कि तन के रोगों का समाधान मन में नहीं, वरन हृदय में है। हृदय समाधान का केन्द्र है, स्वास्थ्य का केन्द्र है। चेतना और प्राणों का केन्द्र है। मन का रोगी हृदय में उतरे। मन जैसे-जैसे हृदयस्थ होता जाएगा, उसे हृदय से स्वयमेव ही,
... ध्यान का मन्दिर : मनुष्य का हृदय / ६३
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