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________________ अपना अंतर्हदय है। संसार के केन्द्र में आज मनुष्य खड़ा है और मनुष्य की धुरी उसका अपना अंतर्-हृदय है। अंतर्-हृदय ही संसार का सबसे पवित्रतम तीर्थ है। जिसे हम घट-घट वासी कहते हैं, वह वास्तव में हमारे हृदय में ही वास करता है। यानी प्राणिमात्र का अंतर्यामी उसके हृदय में हिलोरें ले रहा है। यदि हम हृदय में उतरकर अंतर्यामी का स्मरण करें और उसकी भक्ति में अंतरलीन हो जाएँ, तो आप अपने प्राणों में परमात्मा की प्राण-धारा को ऊर्जस्वित होते हुए पाएँगे। परमात्मा तो बरस रहा है। धरती के हर कोने-कोने में वह झर रहा है। अगर हमें नहीं मिल रहा है तो उसका कारण यह है कि हमने अपने हृदय का पात्र औंधा कर रखा है। पात्र सीधा हो, रीता हो, भर जाने को आतुर हो और वह न भरे यह मुमकिन ही नहीं है। __ प्राणिमात्र के अन्तर्-हृदय में ज्योति जल रही है। हमारा शरीर उस ज्योति के चारों ओर का प्रकाश है। हमारी मुश्किल यह है कि हम केवल प्रकाश को महत्त्व दे रहे हैं। प्रकाश के उस उत्स को नहीं, केन्द्र को नहीं जहाँ से प्रकाश आ रहा है। मनुष्य का अंतर्-हृदय ही तो मनुष्य की चेतना का ज्योति-केन्द्र है। धरती का भगवत्-केन्द्र तो यही है। बस, अंतरलीनता चाहिए। हम हृदय में उतरें और आत्म-बोध के साथ हृदय के मानसरोवर में ही हंस-विहार करें। ___आप हृदय से परमात्मा को पुकारें। परमात्मा की रसधार स्वतः आप पर झरेगी। आप ऐसे अहोभाव से, आनन्द-भाव से भर उठेंगे कि मानो परमात्मा के प्यास की लौ सुलग उठी है। अभीप्सा जग गई है। एक ऐसी टीस, एक ऐसी पीड़ा, एक ऐसी आग, एक ऐसी प्रार्थना कि हम अपने प्राण में परमात्मा की धारा पाते हैं। मेरे प्राणों में ओ प्रियतम, पीड़ा का संसार बसा दो ॥ छु कर मेरी काली पलकें, चूम-चूमकर भीगी पलकें । बझ न सके जो इस जीवन में, ऐसी व्याकल प्यास जगा दो। अपने पास बुलाकर प्रियतम, लेकर मेरा मौन समर्पण। ६२ / ध्यान का विज्ञान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003865
Book TitleDhyan ka Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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