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________________ हो जाते हैं। प्रेम का स्मरण करके हम एक प्रकार से भगवान कृष्ण और जीसस से जुड़ रहे हैं क्योंकि वे प्रेम के ही अवतार थे । करुणा से हृदय को आप्लावित करके मानो हम बुद्ध का सानिध्य पा रहे हैं । संयम और त्याग पर स्थिर - चित्त होकर हम महावीर की ही अर्चना कर रहे हैं । सत्य और मर्यादा पर एकाग्र होकर हम भगवान् राम में रमण कर रहे हैं । स्वयं जीवनको गुणात्मक बनाने के लिए, अंतस्-चेतना को सद्गुणों से सुवासित करने के लिए यह एक श्रेष्ठ प्रयोग है। ध्यान के चौथे चरण में हम इतने मौन हो जाएँ कि मानो हम तनमन रहित हैं। केवल शांतिपूर्ण विश्राम, हम अस्तित्वमय हो जाएँ, स्वयं की ऊर्जस्वित स्थिति का आनन्द लें । ध्यान के इस प्रयोग से गुजर कर जब हम उठेंगे, हम पायेंगे कि हम वह न रहे जो थे । हम कुछ नये हुए। हम में कुछ नवीनता आयी । जीवन तमस् और उसकी जड़ता में काफ़ी कमी आयी । हम निर्भार हुए, प्रकाशवान हुए। सुबह-शाम हमें ध्यान के दौर से अवश्य गुजर लेना चाहिए। ध्यान को हम बड़ी सहजता से लें । जहाँ ध्यान करने बैठें, बाह्य परिस्थितियाँ हमारे अनुकूल हों। इसके लिए ज़रूरी है कि आस-पास का वातावरण शांत हो । ध्यान में घंटों बैठने की ज़रूरत नहीं हैं। ध्यान की मूल चीज़ हमारे हाथ लगनी चाहिये और वह है एकाग्रता, स्थिर - चित्तता, साक्षित्व | ध्यान के प्रति कोई ज़बरदस्ती न हो । ध्यान को हम बड़ी सहजता से लें। ध्यान के प्रति हम बड़े सहज हों। हम ध्यान में बैठें, ध्यान धरें और फिर ध्यानपूर्वक जीवन की विविध चर्याओं में लग जाएँ । कार्य से निवृत्त होने पर अपनी चेतना में, अपनी स्वसत्ता में वैसे ही लौट आएँ जैसे साँझ होने पर सूरज अपनी किरणों को अपने में समेट लेता है, पंछी नीड़ में लौट आता है । आसमान से घर की ओर, परिधि से केन्द्र की ओर । Jain Education International ध्यान का उदात्त रूप / ५१ www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.003865
Book TitleDhyan ka Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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