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का यह फ़ासला जितना बढ़ेगा, हममें एकाग्रता की ध्यान-शक्ति उतनी ही ज़्यादा बढ़ेगी। साँस को हम मामूली न समझें। क्योंकि साँस के साथ ही हृदय की धड़कन चलती है। साँस के लेने और छोड़ने में केवल हृदय ही स्पंदित नहीं होता, वरन् चित्त भी होता है । चित्त के स्पंदित होने से ही विचार, विकल्प
और वृत्तियाँ भी स्पंदित होती हैं। और जब ऐसा हो तो हम चित्त में उठने वाली वृत्तियों और विकल्पों के संचरण को उनसे अलग होकर देखें, उनके साक्षी बनें। चित्त-संचरण का साक्षी होना ध्यान और एकाग्रता की शुरुआत है।
दूसरे चरण में हम उन वृत्तियों और विकल्पों का निरोध करें। यही वह चरण है जब हमें अपने भीतर की अयोग्य बातों को निकाल फेंकना होता है। हम उन्हें निकाल फेंकने के लिए दीर्घ श्वास-प्रश्वास स्वीकार करें, लंबेगहरे साँस लें, लम्बे-गहरे साँस छोड़ें। यह क्रम पाँच मिनट तक चलता रहे इससे हमारे मस्तिष्क में स्वच्छता तो आयेगी ही, नई ऊर्जा का भी संचार होगा। हमारी यह दीर्घ श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया धीरे-धीरे मंद होती जाये, सूक्ष्म होती जाये। इतनी बारीक होती जाये कि मानो श्वास चल रही है या नहीं, पता न चले। भीतर के आक्रोश में यह जो शून्यता आयी है, मन जो मौन हुआ है, वहाँ हम ध्यान का तीसरा चरण स्वीकार करें।
ध्यान का तीसरा चरण है किसी प्रिय मंत्र या सगुण-रूप पर चित्त की स्थिरता। इस चरण में हम किसी पवित्र सूत्र के अर्थ का चिंतन कर सकते हैं, परमात्मा के रूप अथवा नाम का स्मरण कर सकते हैं। ओम्, अर्हम या सोहम् पर चित्त को स्थिर कर सकते हैं। 'सोहम्' एक अच्छा बोध-सूत्र है। 'सः' परमात्मा का वाचक है और 'अहम्' अहंकार का। भीतर आ रही साँस 'सो' के बोध से गुजर कर आये और बाहर निकलती साँस हमारे अहंकार को विसर्जित करती हुई हो।
इस चरण में हम एक और उपयोग कर सकते हैं और वह है 'गुणस्मरण'। यह एक ऐसा उपाय है जो मनुष्य को उदात्त बनाता है। मेरी समझ से यह उपाय सर्वाधिक मंगलकारी और जीवन सापेक्ष है। गुण स्मरण करें। इससे न केवल हमारा जीवन प्रेम, करुणा, त्याग और मर्यादा से ओत-प्रोत होगा, वरन ऐसा करके हम अपने आराध्य महापुरुषों से भी स्वतः संबद्ध ५० / ध्यान का विज्ञान
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