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________________ अपनी दृष्टि को अंतरमुख करें और स्वयं के द्वारा स्वयं का ध्यान धरें। हम आत्मनिरीक्षण करें। हमें अपने भीतर जो अवांछित और अमानवीय लगे उसे दृढ़ संकल्प-शक्ति के साथ बाहर निकाल फैंकें। और स्वयं के जो मानवीय गुण हैं, जो सार और योग्य है उस को प्रगट करें। हम अपने अंत:करण में सम्यक् चिंतन के कुछ ऐसे चिराग उतारें जो वांछित को प्रगट होने में जोर अवांछित को बाहर निकालने में हमारी मदद करें। हम सार्थक बिन्दुओं पर अपना ध्यान केन्द्रित करें। सार्थक विषयों पर अपने मन को एकाग्र करें। जैसे-जैसे एकाग्रता सधेगी, असार छूटेगा, हम सार की ओर अभिमुख होंगे। हमारा अहं विगलित होगा, ब्रह्म साकार होगा। एक अध्यापक अपनी कक्षा ले रहे थे। उन्होंने पढ़ाते-पढ़ाते ही देखा कि एक बच्ची का ध्यान खिड़की से बाहर की ओर है। वह पेड़ की टहनी पर बैठी चिड़िया और उसकी चहचहाहट को देख सुन रही है। अध्यापक ने उसकी मेज थपथपाई और पूछा, 'किधर ध्यान है तुम्हारा?' छात्रा का ध्यान पढ़ाई में स्थिर नहीं था, किन्तु अस्थिर भी नहीं था। उसका ध्यान तो केन्द्रित था, पर टीचर की ओर नहीं वरन चिडिया की ओर। यह स्थिरता होते हुए भी अस्थिरता कहलायेगी। पढ़ते समय हमारा ध्यान पढ़ाई में केन्द्रित होना चाहिए, न कि किसी अन्य विषय-वस्तु में। यह स्थिरता आयेगी कैसे? एकाग्रता सधेगी कैसे? योग इसके सूत्र देता है। हम जब जो कार्य करें उसे पूरी तन्मयता के साथ करें। यह हमारा कार्य के प्रति ध्यान हुआ। खाना खायें तो पूरे मन से खायें। पढ़ें तो पूरे मन से पढ़ें। भगवान का स्मरण करें तो पूरे मन से करें। पूरे मन से अपने कार्यों को पूरा करना ही एकाग्रता है, चित्त की स्थिरता है। हम किसी भी कार्य को करते समय उसमें पूरा रस लें। हम जितना रस लेंगे कार्य के प्रति हम उतने ही एकाग्र, स्थिर-चित्त और वफ़ादार हो पाएँगे। आइये, हम चित्त का ध्यान करें। ___ हम ध्यान के लिए बैठें और अपने भीतर-बाहर आ-जा रही साँस को ध्यान से देखें। अपनी साँस का दर्शक होना एकाग्रता को साधने का सबसे सरल तरीक़ा है। हम प्रयास करें कि साँस को लेने और छोड़ने के बीच जो हमें अंतर मिले, जो गेप मिले, हम उसे बढ़ाएँ। यह गेप, दो साँसों के बीच ध्यान का उदात्त रूप/ ४९ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003865
Book TitleDhyan ka Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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