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________________ की स्मृति आती है । जब परमात्मा की स्मृति में एक लय हो जाते हैं तो पत्थर की प्रतिमा बिखर जाती है । वहाँ परमात्मा का रूप साकार हो जाता है। ग्रंथ साधन है सार के बारे में सोचने के लिए। गुरु साध्य है साधन की ओर अंगुली - निर्देश करने के लिए । प्रतिमा साधन है या मूर्ति साधन है परमात्म-स्वरूप की ओर बढ़ने के लिए । साधन का तब तक मूल्य है जब तक साध्य उपलब्ध न हो जाए, साधन तो रास्ता है पहुँचने के लिए। साधन तो बैशाखी है चलने के लिए। साधन तो बिल्कुल ऐसे है जैसे बच्चे के लिए माँ की अँगुली का सहारा मिल जाये तो चलने में थोड़ी आसानी हो जाती है, संबल मिल जाता है। हमें सार का चिंतन करना चाहिये । असार को वैसे ही छोड़ देना चाहिए जैसे गूदे को पाने के लिए छिलका, धान को पाने के लिए भूसा । हमारे कदम सार की ओर, केन्द्र की ओर बढ़ें। यह सारा जगत गुण-दोषमय है । कोई भी वस्तु या व्यक्ति ऐसा मिलना कठिन है जो गुण और दोष रहित हो । न तो कोई ऐसा है जिसमें सौ फीसदी दोष ही हों, कोई गुण न हो। ऐसा भी मिलना कठिन है जिसमें गुण ही गुण हों, किसी प्रकार का दोष नहीं हो। गुण और दोष हर वस्तु, हर व्यक्ति के साथ चलते हैं। व्यक्ति जहाँ जाता है उसके गुण-दोष उसके साथसाथ रहते हैं। फ़र्क़ इतना सा ही पड़ता है किसी में गुण ज्यादा होते हैं तो किसी में दोष ज्यादा होते हैं तथा गुण कम । मगर हैं सभी गुण-दोष मय ही । सार तत्त्व का चिंतन-मनन करने का अर्थ यह हुआ कि हम गुणों की ओर केंद्रित हों । दोष पर ध्यान न दें। यदि हमें गुणों को ग्रहण करने की दृष्टि मिल गई, तो हम एक ऐसी शक्ति के स्वामी हुए जो दोषों से भरी हुई किसी चीज में गुण की तलाश कर लेंगे। हम गलत वस्तु और गलत आदमी का भी सही और सार्थक कार्य के लिए उपयोग कर सकेंगे । गुणों को ग्रहण करने की दृष्टि हमें सार और सार्थक के चिंतन से, जीवन और जगत् के प्रति सतत सजग और अनुरागी होने से प्राप्त होगी । सार को, सार्थक को, गुणों को देखने की दृष्टि ही ध्यान दृष्टि है, योग दृष्टि है । इसे हम सम्यकदृष्टि और जीवन-दृष्टि कहेंगे । वस्तु या व्यक्ति के प्रति हम गुणात्मक कैसे हो पाएँ इसके लिए हम ४८ / ध्यान का विज्ञान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003865
Book TitleDhyan ka Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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