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ध्यान का उदात्त रूप
सार का चिंतन करने से असार छूटता है। धर्म का मनन करने से संप्रदाय छूटता है। परमात्मा में तन्मय होने से प्रतिमा छूटती है। जब तक व्यक्ति केंद्र की ओर कदम नहीं बढ़ाता, परिधि मूल्यवान बनी हुई रहती है। परिधि असार है। भले ही परिधि भी केन्द्र का विस्तार हो, लेकिन जब हम अंतर्यात्रा करते हैं तो हम केन्द्र के इतने क़रीब पहुँच जाते हैं कि हमारे लिए परिधि फिर कोई बड़ा अर्थ नहीं रखती। जब तक आदमी के पास जीवन का मार्ग नहीं होता, तब तक शास्त्र मूल्यवान और मार्गदर्शक हैं। लेकिन जब हम रास्तों को पार कर लेते हैं तब शास्त्र का सत्य हमारा अपना सत्य हो जाता है। तब शास्त्र गौण हो जाते हैं। हम जो कहते हैं वही आने वाली पीढ़ी के लिए शास्त्र बन जाता है। प्रतिमा को देखकर परमात्मा
ध्यान का उदात्त रूप / ४७
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