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चौथा पहलू है : मध्यस्थता । यानी एक ऐसा मौन जिसमें आदमी औरों के द्वारा की जा रही उचित-अनुचित क्रियाओं के प्रति निरपेक्ष बना हुआ रहता है । मध्यस्थता संतुलन है । जीवन स्वयं एक उत्सव है, एक पर्व है, एक नृत्य है, पर एक ऐसा नृत्य जैसे कोई नर्तक रस्सी पर नृत्य कर रहा हो। जैसे ही हाथ से होश छूटा तुम गये गर्त में । स्वाभाविक है कि तुम जीवन जी रहे हो और जीवन भी ध्यान की आभा से ओत-प्रोत ! हमें हर हाल में प्रतिक्रियाओं के प्रति निरपेक्ष, शांत और प्रसन्न होना होगा । दुनिया के पास जो होगा वह दुनिया देगी । तुम्हारे पास जो होगा वह तुम दोगे । दुनिया तुम्हें प्रणाम देगी तो अपमान भी । साधना की अस्मिता इसमें है कि हम अपमान के बदले आशीष लौटाएँ, बाधाओं के बदले प्यार की बयार लौटाएँ, काँटों के बदले भी करुणा के फूल खिलाएँ ।
इंसान ही नहीं पंछी और जानवर भी, पेड़ और पौधे भी, पहाड़ और झरने भी तुम्हारे प्रेम के पात्र हो जाएँ। हम तो अस्तित्व के साथ ऐसे एकाकार हो जाएँ जैसे बूँद सागर में निमज्जित होती है । जैसे चातक स्वाति का हो जाता है, जैसे सागर चाँद की ओर उमड़ता है। हम तो एक ऐसा जाम पीएं कि ज़िंदगी फ़क़ीरी का आलम हो जाये, अन्तरमन सम्राटों का आनन्द हो जाए । चित्त को पूरी तरह रिक्त हो जाने दो। शून्य और शाश्वत, निरपेक्ष, पूरी तरह एम्प्टी-ब्लेंकनेस । संकल्प-विकल्प-रहित स्थिति, मान-अपमान में सम स्थिति । नफा-नुकसान में समदृष्टि ।
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हम मुक्त हो चलें । तन-मन दर्पण हो जाएँ। हालात चाहे जैसे हों पर हमारी चेतना की स्वतंत्रता अखंड रहे । गलती करने वालों को उनकी गलतियों के लिए माफ़ कर दें । उपेक्षा करने वालों के प्रति भी उदारता का अमृत बरसता रहे । तुम ऐसे फूल हो जाओ कि चेतना का कमल खिला हो । दुनिया के दलदल में रहकर भी उससे अलिप्त होकर अपनी सुषमा बिखेरो। अपने आत्म - सौन्दर्य का स्वयं भी आकंठ पान करो और औरों की खुशियों के लिए भी निमित बनो । मन मयूर की तरह सदा नृत्यमय रहे । हृदय में कोई हिलोर उठे तो वह गीत का झरना बन जाये । जीवन ऐसा हो जैसे अंधेरी रात में प्राची की ओर चाँद उदित हो जाये, आँगन में चिराग़ जल उठे।
४६ / ध्यान का विज्ञान
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