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________________ वह तुम्हारे दान के पैसे से रोटी खाएगा या शराब पीयेगा। अगर शराब पी तो उसके द्वारा लिए जाने वाले मद्यपान का पाप तुम्हारे मत्थे चढ़ेगा। इस तरह की बात कहने वाले भी दुनिया में धार्मिकता के प्रतिनिधि कहलाते हैं। आखिर तुम उसे धर्म कहोगे भी कैसे, जिसमें दीन के प्रति दया नहीं, रुग्ण के प्रति सेवा नहीं और करुण के प्रति करुणा नहीं। सवाल भोजन के अन्तराय का या मद्यपान के पाप का नहीं है। सवाल हमारी इन्सानियत का है, मानवता के अर्थ का है, हृदय की कोमलता का है। बुद्ध तो इतनी महान करुणा के स्वामी हुए कि उन्होंने कहा कि इतनी आर्त और पीड़ित मानवता को यों ही उसके भाग्य के भरोसे छोड़कर मेरी ओर से निर्वाण की कामना करना, अर्थहीन है। बुद्ध ने भले ही बुद्धत्व की ज्योति पा ली हो मगर इसके बावजूद वे मानवता को अपनी करुणा का भागीदार समझते हैं। कृष्ण की करुणा कि उन्होंने गौ-सेवा की, नेमी की दयालुता कि बारातियों के लिए किये जा रहे जीव-वध को रोकने के लिए राजुल की वरमाला की परवाह न की और अपने विवाह तक को तिलांजली दे दी। शिवि तो शरणागत कबूतर की रक्षा के लिए बाज को अपनी जाँघ का मांस भी देने को तैयार हो जाते हैं। करुणा तो चाहिये ही। दया तो हृदय का कोमल गुण है। भगवान करे हर आदमी कर्ण हो, ज़रूरत पड़े तो इस मानवता के लिए मृत्यु का भी वरण हो। हमारे द्वार से कोई भी खाली हाथ न लौटे, भगवान कीड़ी को कण देता है और हाथी को मण। अपने द्वार पर आये हुए किसी याचक को दो मुठ्ठी अनाज दे देना, प्यासे को पानी पिला देना, रुग्ण की सेवा कर देना, किसी अनाथ बच्चे को गोद ले लेना, बेकार भटक रहे बच्चे को गोद ले लेना, बेकार भटक रहे बच्चों के लिए शिक्षा और साक्षरता का इन्तज़ाम कर देना, मेरे प्रभु! परमेश्वर की ही प्रार्थना है। कहा जाता है कि दुनिया का मालिक एक बार हर किसी के द्वार पर कभी-न-कभी अवश्य पहुँचता है। उसकी ओर से ईश्वर की इबादत स्वीकार करने के लिए, अर्घ्य अंगीकार करने के लिए, और इसमें हम तभी सफल हो पाएँगे जब हम ईश्वर की इन्तज़ारी नहीं वरन हर इन्सान में ईश्वर को देखेंगे, प्राणी-मात्र में परमात्मा को निहारेंगे। पता नहीं कब किस रूप में भगवान हमारे द्वार पर उपस्थित हो जाएँ। Jain Education International रण/४५ www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.003865
Book TitleDhyan ka Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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