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की कितनी अनुपम, अनूठी करुणा / प्रमुदितता / मधुरता, कि मुँह से ये अलफ़ाज़ निकल रहे हैं ओह मेरे प्रभु! माफ कर इन्हें; ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं
हम जीवन के साधना के पथ पर आगे बढ़ रहे हैं । हमारे सामने न तो सलीब की स्थिति है और न ही कानों में कीलें ठुकने की नौबत । हम अगर यों बात-बेबात में चिड़चिड़ा उठेंगे, किसी वांछित - अवांछित शब्द को भी न सह पाएँगे तो यह मुमकिन ही नहीं है कि हम अपनी अन्तर - प्रसन्नता को मन्दिर के दीये की तरह अखंड रख पायें। दीये और फानूस अगर बुझ भी जाएँगे तो फिर से जलने के ढेर सारे साधन हैं। हमारी चेतना अगर बुझ गई तो बूझो कि चेतना के जागरण के लिए फिर से हमें कितना पुरुषार्थ करना होगा। चेतना का दीप एक बार जलाया जा सकता है, हम अपनी चिर प्रसन्नता से उस दीप को सींचें, न कि अपनी अहम् की नासमझी में उसे फूँक मार कर बुझा बैठें।
चेतना का दीप जले अखंड, चिर प्रसन्न । हम स्वयं भी ज्योतिर्मय हों और औरों को भी ज्योतिर्मयता का बोध प्रदान करें। जीवन वह चन्दन हो जो खुद भी सुवासित हो और जिसके शीष पर जाकर तिलक करे, वह भी सुवासित हो ।
अन्तर-भावना का तीसरा पहलु है दयालुता । स्वाभाविक है कि प्रेम और मित्रता को जीने वाला सदा प्रसन्न होगा । दया और करुणा उसके जीवन की परछाई जैसे होंगी। दयालुता तो अन्तरहृदय की वह कोमलता है जैसे कि मक्खन हुआ करता है । तुम किसी रास्ते से गुजरो और वहाँ कोई दीनहीन दशा में पड़ा देखकर तुम करुणा- द्रवित न हो उठो तो इसका अर्थ है तुम्हारा हृदय मृत है। तुम अमृत की खोज भले ही कर रहे हो, पर अमृत की खोज के लिए स्वयं को अमृत होना पड़ता है । मृत को मृत ही मिलता
है,
अमृत नहीं ।
एक परम्परा की किताबों में मैंने पढ़ा कि बिल्ली अगर चूहे को मारने को दौड़े तो उसे छुड़ाओ मत। क्योंकि चूहा बिल्ली का भोजन है और चूहे को बचाकर बिल्ली के भोजन की अन्तराय लगाने के दोषी होते हो। ये किताबें कहती हैं कि तुम किसी को दान मत दो। क्योंकि क्या भरोसा कि ४४ / ध्यान का विज्ञान
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